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पेड़ों की कतार के पार / अज्ञेय

पेड़ों के तनों की क़तार के पार
जहाँ धूप के चकत्ते हैं
वहाँ
तुम भी हो सकती थीं
या कि मैं सोच सकता था
कि तुम हो सकती हो
(वहाँ चमक जो है पीली-सुनहली
थरथराती!)
पर अब नहीं सोच सकता :
जानता हूँ :
वहाँ बस, शरद के
पियराते
पत्ते हैं।

बिनसर, 1978