जब भी
मेरी आंखों में उगते है
नन्हे-नन्हे
हरे-हरे पेड़
मेरे मन को
भीतरी कोने से आ
सब तहस-नहस कर डालती है
कमबख्त एक वहशी भेड़।
तब मैं
हरियाली के तमाम सपने
भूल कर
पालने लगता हूं
वह स्वप्नघाती भेड़
और फिर
कहीं भी
कभी भी
यहां तक कि
सम्भावनाओं तक में
नहीं उग पाता
कोई साध पूरता
मरियल सा भी
हरियल कोई पेड़।
कौन बचना चाहिए
पेड़ या भेड़?
यहीं सवाल
मुझे कचोटता रहता है
और
भेड़ पेड़ को
पेड़ मेरे भीतर को
लगातार
काटता रहता है।