Last modified on 2 मई 2010, at 01:59

पेड़ बनाम आदमी / नन्दल हितैषी

पेड़ / जितना झेलता है
सूरज को
सूरज कभी नहीं झेलता।
पेड़ / जितना झेलता है
मौसम को
मौसम कभी नहीं झेलता।

...... और पेड़ / जितना झेलता है
आदमी को
आदमी कभी नहीं झेलता।
सच तो यह है
पेड़ / अँधेरे में भी
रोशनी फेंकते हैं
और अपने तैनात रहने को
देते हैं आकार।

..... और आदमी उजाले में
जो उगलता है विष
महज़ पेड़ ही उसे पचाते हैं
पेड़ / रात में बगुलों के लिये
तालाब बन जाते हैं
और आत्मसात कर लेते हैं
’बगुलाहिन’ गंध
पेड़ / जब उपेक्षित होते हैं
तब ठूँठ होते हैं
और फलते हैं गिद्ध
वही करते हैं बूढ़े बरगद की
लम्बी यात्रा को अन्तिम प्रणाम।
अगर उगने पर ही उतारू,
हो जाय पेड़
तो चिड़िया के बीट से भी
अँकुरा सकते हैं
किले की मोटी और मजबूत दीवारों को फोड़
खींच सकते हैं अपनी खुराक
जुल्म की लम्बी और मजबूत परम्परा को
खोखला कर सकते हैं

पेड़ / कभी धरती पर भारी नहीं होते,
आदमी की तरह / आरी नहीं होते।
पेड़ / अपनी जमीन पर खड़े हैं।
इसलिये / आदमी से बड़े हैं,
पेड़ / जितना झेलता है
सूरज को
सूरज कभी नहीं झेलता।
पेड़ / जितना झेलता है
मौसम को
मौसम कभी नहीं झेलता।
...... और पेड़ / जितना झेलता है
आदमी को
आदमी कभी नहीं झेलता।