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पैबन्द / सुधेश

ज़िन्दगी के चीर में
जन्म से
बुढापे तक
कई पैबन्द लगते हैं

इतने
कि ज़िन्दगी ही
पैबन्द हो जाती

भोली आत्मा
ढकती है
आत्मा राम बेचारा
करे क्या ?