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पोती की स्म्रति में / सांवर दइया

खैर,
वह तो जल-जला गई
छोड़ो उसकी कहानी
वैसे खत्म नहीं होती कहानी

जल-जला जाने के बाद भी
पीछे रह जाते हैं
दीवारों पर कुछ काले धब्बे
कुछ फर्श पर भी
न सुनना चाहें तन भी उभरती है हवा में
कुछ चीत्कारें
कुछ चीखें
बचाओ-बचाओ की असहाय अटूट पुकार
न सुनी जाने पर जो
टूट जाती है
बेहद ठंडी रातों के सांय-सांय करते
सूने सन्नाटे में
मेरी नींदों को जलाकर
आज भी सामने आ खड़ी होती हो
तो इतना बताओ सुन्नू
इस जलजले में कहां ढंढ़ें
तुम्हारे जल-जला जाने के कारण
बताए नहीं जो तुमने ही !

(जली अथवा जलाई पोती की स्मृति में)