राग देवगान्धार, धमार 15.7.1974
पौढ़े पलना बाल गोपाल।
किलकिलात पद-कर चालत सखि! लखि-लखि जननी होत निहाल॥
कर धरि मुख पद-अँगुठा मेलत, खेलत कबहुँ पकरि गल-माल।
जननी की कनिया चढ़िवेकों कबहुँ पसारत बाहु विसाल॥1॥
मैया निरखि-निरखि सचु मानत, दुलरावत लालन दै ताल।
लोरी गाय-गाय हलरावत, हँसत हँसावत लाल रसाल॥2॥
कनिया लै चुचकारत लालन, पय पिवाय हिय होत निहाल।
बार-बार बलि जात ललन पै, वारत राइ-लौन तत्काल॥3॥