मुझमें है भीषण ज्वाल भरा
मैं महासिन्धु का गर्जन हूॅं।
हिल उठे धरा डोले अंबर
वह प्रलयंकर आवर्त्तन हूॅं।
में हूॅं विनाश का मार्तंड
मैं उच्छृंखल नभ धूमकेतु,
विध्वंस राग का स्वर हूॅं मैं
मैं अखिल सृष्टि का सजग हेतु।
मैं तीव्र ज्वलित बड़वानल हूॅं
जो मथ देता विरिधि अंतर
मैं निर्झर का खर स्रोत प्रखर
जो रुकता नहीं कभी पल भर।
मैं महाप्रलय का धाराधर
ढ़क लेता नभ को छहर-छहर
कर वज्रघोष विद्युत-नर्त्तन
अविराम बरसता घहर-घहर।
मैं क्षुब्ध रुद्र का तांडव हूॅं
हर के डमरू का डिम-डिम स्वर
थर्राता मुझसे भू-मंडल
आकुल शंकित होता अंबर।
मैं हिमगिरि का उन्नत मस्तक
जो झुकता नहीं कभी पल भर
अभिमान चूर्ण कर त्रिदशों का
जो तू सकता ऊॅंचा अंबर।
है एक हाथ में सुधा-कलश
दूसरा लिए है हालाहल
मैं समदर्शी देता जग को
कर्मों का अमृत औ विष फल।