प्यार: एक परिभाषा
प्यार नहीं है मिट्टी का वह कुल्हड़
जिसको एक बार पिया जाय और फेंक दिया जाय।
प्यार नहीं वह स्वर्ण-चषक भी
अमृत भी धारण करता जो एक बार ही
एक बार ही होंठों को जो छू पाता है
और निकम्मा हो जाता है।
प्यार नहीं वह काठ की हांडी
इतनी कच्ची!
चढ़े न दूजी बार जो
वरन प्यार तो
वह गिलास है
धुल जाता हर बार सिर्फ थोड़े साबुन-पानी से
और स्वच्छ उतना ही
उतना ही पवित्र रहता है।
प्यार तो सदैव ही कुँआरा है
भंग नहीं होता है उसका सतीत्व कभी।