Last modified on 21 जनवरी 2011, at 17:55

प्यार-पलाश / केदारनाथ अग्रवाल

प्यार-पलाश
खिला
फूला है वन में,
नहीं ईंट-पत्थर के भव्य भवन में-
नहीं नवोढ़ा के कामातुर तन में-
नहीं प्रपंचक पूजक जन के मन में।

रूप-रंग अनुराग मिला है वन को,
हर्षित
मुनिवर पेड़ हुए,
मुसकाए;
पवन प्रमोदित
हुआ, प्रवाहित झूमा,
पंख पसारे
गाते पक्षी प्यारे।

रचनाकाल: ०१-०८-१९९१