मैने तुम्हें
उस पिछली सड़क के
किनारे-किनारे
हल्कीए नीली आभा लिए
एक सफ़ेद चिड़िया-सी
फुदकते देखा
उस घर-द्वार तक
मुड़कर पूछती हुई सी:
देखो
देख सकते हो !
कब तक देखता रहूँगा
तुम्हें उस घर्-द्वार तक
कब तक देखोगी
मेरा देखना !
यह कैसा धीरज है
बीच खड़ा
भरा आती हैं
मेरी आँखें
तुम्हारे
दु:ख सुख में
यह कैसा मोह है
दुख है
सुख है
या प्प्यार प्रिये !
कुल्लू, मई 1988