रेल कोच के शयनयान में
वातायन के निकट सीट पर,
मै बैठा यों ही देख रहा था
परिमंडल के दृश्य मनोहर।
वर्षा ऋतु चरमोत्कर्ष पर
धारासार बरसता जलधर,
बागों खेतों में सुदूर तक
जल से पूरित धरती अंचल।
रूपक सम नीर सतह ज्योतित
घनघोर घटा छाई नभ में,
मेंड़ों का शिखर झलकता था
जल से आप्लावित खेतों में ।
चल रही ट्रेन धीरे धीरे
आता समीर वातायन से,
मिट्टी की सोंधी महक लिए
स्फूर्ति जगाता तन मन में।
डूबा था आगे रेल ट्रैक
परिवेश भयावह लगता था,
रुक गई ट्रेन धीमी होकर
आगे जाना प्रतिबंधित था।
सहसा वातायन से देखा
नारी चलती मेड़ शिखर पर,
पय-शोषित पट शुभ्र धवल
लय शोभित गति मंद चरण।
अपनी दोनों बाँह उठाए
पथ गामी संतुलन बनाए,
जैसे उड़े पखेरू कोई
अपने युगल पंख फैलाए।
वर्षा जनित धुँधलका छाया
आकृति रचना अस्पष्ट थी,
पर प्रतीत होती जैसे वह
सुघड़ मनोहर रूपवती थी।
वह आगे बढ़ती चली गई
होती गई दृष्टि से ओझल,
मै लगा सोचने गई कहाँ वह
और कहाँ से हुआ आगमन।
आया मन में सुविचार नवल
अवधारण करके वस्त्र धवल,
क्या जल वृष्टि निरखने आई
आभासित नारी प्रकृति स्वयं!