मेरे अपने
कोई रहस्य नहीं थे,
तुम्हारे पास ही अज्ञान था!
मैंने तुम्हें
कभी ललकारा नहीं
न मैदान में उतरी
तुम्हारे खिलाफ!
फिर तुम्हारा जितना कैसा?
अगर
यह मुझे पहचाना हुआ है,
तो यह भी
बूँद का समुंदर को जानना हुआ है!
तुम मुझसे
भिन्न नहीं हो
चाहे मुझे रहस्य मानो
चाहे धरोहर,
तुम मेरे ही हिस्से हो,
अपनी अलग पहचान रचने
की कोशिश में
मेरे ही किस्से हो!