Last modified on 14 अप्रैल 2022, at 17:08

प्रगति के अण्डे / विनोद शाही

एक फूल खिला
वनस्पति की एक तितली उग आई ।

एक प्रेमी ने कहा, सुन्दर है
चलो, इसका नाम रति रख देते हैं ।

उसे देख, आकाश में उड़ान भरती
सचमुच की एक तितली ने
जैसे दर्पण में ख़ुद को देखा ।
विस्मय से भर गया फूल भी
ये मैं हवा में कैसे उड़ा ?

कौन हूँ मैं
पूछने लगीं मन ही मन
दोनों तितलियाँ
एक दूसरी को देखकर

फिर जैसे ही बैठी तितली वह
फूल पर जाकर अकस्मात
कहा प्रेमिका ने प्रेमी को बाँह से घसीटते हुए
एक से दो होना, कहते हैं इसे
ये है रति और ये है गति
आओ, इनके ब्याह में शामिल हो जाएँ
और इनकी तरह
हवा में झूलते हुए
हम भी कुछ पल के लिए
आकाश में उड़ जाएँ

इतना मत उड़ो
चेताया एक तीसरी तितली ने गुर्राकर
क्षितिज के किनारे को दो हिस्सों में चीरती वह
आ गई इस्पाती तितली तेज़ी से उनकी ओर

तितलियों के जोड़े का
मंथर नृत्य
ठिठककर हवा में ठहर गया

अन्तरिक्ष में इतनी ऊपर पहुँचने की कूवत
धरती की किसी तितली में कहाँ ?

उन्हें उनकी औक़ात बताने के लिए
अन्तरिक्ष की तितली ने
हवा में ही दे दिया अण्डा
देखा उन्होंने छपा था उसपर
प्रगति का झण्डा

गिरा नीचे तो फट गया अण्डा
आग का फव्वारा
तितली के पँखों सा फैल गया

युद्ध क्षेत्र में पीछे
कटी फटी तितली सा
एक गड्ढा भर बच गया

उपग्रह से खींचे गये इसके चित्र का
शीर्षक था
कभी यहाँ तितली सा फड़फड़ाता
शहर हुआ करता था ।