प्रजातन्त्र था जलसा-घर
संसद थी इसका मछली-घर
पढ़े व्याकरण रोटी का
ये भूखे हर उत्सव पर
कम्प्यूटर में फीड हुए
सपने, मौसम, डर, ईश्वर
वही जाल, दाने, पंछी
वही गुलेलों के पत्थर
न बोलो, न बैठा कागा
महीनों हुए मुंडेरों पर
घायल-लहूलुहान मिले
हर कविता में कुछ अक्षर
बड़े शौक से फिर पहने
पृथ्वी ने दुख के जेवर।