" अहो! अचानक अंगभूप, क्यों आना हुआ यहाँ पर?
आ पाते हैं सिर्फ़ पवन ही, खग ही, मेघ जहाँ पर!
तपियों का यह स्वर्ग, धरा पर निधि-सा मंद्राचल है,
मोक्ष-मुक्ति का धाम, स्वर्ग का खिलता नील कमल है!
" भूपति, यहाँ पहुँचने का कोई तो कारण होगा?
कहो प्रजापति, सब कुछ खुल कर तुरत निवारण होगा!
पर किशोर यह कौन साथ में, इसको क्यों लाए हो?
कुछ तो बात निःसंदेह होगी, ऐसे जो आए हो।
" बोलो अधिरथ, अंग के मुकुट, अंगभाग्य, अवनीश्वर,
जिसका यश ही अग्नि, हवा, जल, गाते रहते अंबर;
कौन कामना चाह यहाँ तक सीधे ले आई है?
कहीं नहीं कुछ सरल जहाँ, पर केवल कठिनाई है।
" अगर चाहते, तो ले आते रथ को ही तुम ऊपर,
कौन सारथी हुआ तुम्हारे जैसा ही इस भू पर!
पर चल कर ही आए मुझ तक, विस्मय क्यों न होता,
कोई और यहाँ होता, तो निश्चय संशय होता।
" बोलो नृप, संकोच करो मत, निश्चय मंगल होगा,
जहाँ सूर्य का पुण्य, वहाँ क्या ठहरा काजल होगा?
मधुसूदन का लोक अमर है, अमृत का यह घर है,
इच्छा के उठने से पहले जहाँ सँघरता वर है। "
मुनि के आशीर्वादों से तन-मन लगता है तीरथ।
परशुराम के चरणों पर तब नत सर होकर अधिरथ,
बोले, " धन्य हुआ, हे देव, तपस्वी, मुनिवर, ऋषिवर,
त्याग, तपस्या, व्योम-शिला पर मणि के अंकित अक्षर।
" यह मेरा सुत कर्ण, गुणों का कोश-व्योम है मुनिवर,
निज कर्माें से सूर्य, वचन से शरद-सोम है, मुनिवर!
गुरु की सेवा, होम-जाप, सब विद्या का अनुरागी,
क्या अतिथिपूजन ही प्रिय है? यह निष्काम विरागी।
" ब्रह्मचर्य के सारे सदगुण देखा खिलते, इसमें,
भव्य त्रिपुर में जो कुछ सुन्दर, सब मिलते हैं इसमें;
यहाँ आपकी छाया में पाए प्रकाश यह, ऋषिवर,
सब कुछ झेल चला आया हूँ लिए आश यह, ऋषिवर।
" वेदों का ही नहीं, अस्त्रा का मेरा सुत हो ज्ञाता,
निज भविष्य और बाहु-भाग्य का अब से बने विधाता!
क्षत्रिय है तो छात्रा धर्म भी इसमें दिखे अनल-सा,
दान-दया के साथ-साथ ही हो शरदेन्दु विमल-सा। "
सुन कर सारी बातें बोले मुनिवर अमृत स्वर में,
वीणा के कुछ तार हिले हों, जैसे कि अंबर मेंµ
" जो कुछ कहा सत्य है, इसमें कुछ भी झूठ नहीं है,
हे अंगेश, दृष्टि से मेरी कुछ क्या छिपा कहीं है?
" यह किशोर, यह बालक अपना परिचय स्वयं कहेगा,
छोड़ इसे दो, यहीं आज से मेरे साथ रहेगा!
सीेखेगा वह सभी कलाएँ जो अलभ्य है नर को,
और बहुत कुछ, ज्ञात नहीं जो ऊपर किसी अमर को। "
अधिरथ की कुछ रही नहीं सीमा खुशियों की पल में,
शंकाएँ सब दूर हुईं, जो छुपी हृदय के तल में;
नवा शीश को जोड़ लिया अपने दोनों कर ऐसे,
नभ में उदित सूर्य के सम्मुख कुमुद झुके हों जैसे।
मन पर पड़े हुए संशय का, दुख का भार हटा है,
अब तो तम के रोम-रोम में फैली हुई छटा है;
कहा, " प्रभो, आदेश करें, तो मैं प्रस्थान करूँ अब,
इस चिंता से मुक्त हुआ, तो पुर का ध्यान करूँ अब। "
देने को आदेश और आशीष, उठे कर मुनि के,
प्राण हुए जाते थे ऐसे; ज्यों सित निर्झर मुनि के.
चरण कर्ण ने छूए मुनि के और पिता के, प्रमुदित,
रोमांचित था मंद्राचल, तो दशो दिशाएँ हर्षित।
फिर कुछ क्षण ही बाद नाद घरघर का उठा गगन में,
सिहरन दिशा-दिशा में, जल में, थल में और पवन में;
उत्तर दिशि में बढ़ा नाद वह, नभ से हुआ तिरोहित,
उछला था जो अभी-अभी वह जल में मीन अलोपित।
लेकिन उधर शान्त आश्रम में मुनि-संवाद सजग है,
नवालोक से मुग्ध कर्ण का मानस-मन जगमग है।
सिर्फ शयन का काल मौन होता है गिरि-आश्रम में,
और नहीं तो एक ज्ञान का राग कुहुक पंचम में।
लेटे-लेटे या चलते मुनि भेद सभी बतलाते,
और क्रिया में उन्हें ढाल कर तत्क्षण ही दिखलाते।
सभी विधाएँ उठ-उठ कर तल से बाहर हैं झिलमिल,
नीड़ों में सब छुपे हुए खग डाली पर हैं रोमिल।
परशुराम का बरस रहा है स्नेह कर्ण पर ऐसे;
चतुर्मास में मेघ बरसता नभ से भू पर, जैसे;
अब अलभ्य क्या दिव्य अस्त्रा के संचालन की शैली,
बिखर रहे हैं रत्न मनोहर, खुली पड़ी है थैली।
इन्द्र, वरुण, ब्रह्मा के अस्त्रों के सब भेद निराले,
ऐसा कोई शिष्य नहीं जो आसानी से पाले;
लेकिन वे सब निरावरण हैं आज कर्ण के आगे,
असमंजस में प्राण, किसे ले और किसे वह त्यागे।
परशुराम के हाथ खुले थे, मन-मानस भी वैसे,
छूकर ही मधुमास वकुल के हर्ष खुले हों जैसे।
साम और ऋग-यज अपने से अपना अर्थ बताते,
गज, घोड़े, रथ के रहस्य की चुन-चुन कथा सुनाते।
मंद्राचल के इस एकान्त में ज्ञान-स्नेह का उत्सव,
जिसको पाकर प्राण कर्ण के करते रहते कलरव;
सुधियों ने है घेर लिया रविसुत को धीरे-धीरे,
एक-एक कर रंगों से मानस में चित्रा उकेरेµ
" अति उदार गुरु का मन शीतल, रस से भरा-भरा है,
इसीलिए तो मंद्राचल की भूमि मधुर, मधुरा है।
ऐसे थे गुरु द्रोण कहाँ कब, भले ज्ञानपूरित थे,
शशि को श्यामविन्दु घेरे था, उज्ज्वल थे, अति सित थे।
" उनका तो बस पुत्रामोह ही ज़्यादा हुआ उजागर,
कितना ठगा हुआ लगता था उनके पास पहुँच कर;
और ज्ञान का कहाँ भला परिवेश वहाँ था सचमुच,
जो प्रकाश का पुंज लगा था, मात्रा धुआँ था सचमुच।
" यहाँ प्रकृति की खुली-खुली ही बस आभा दिखती है,
अभिरामा की दृष्टि जिसे पीने बरबस झुकती है;
ऊँचे-ऊँचे वृक्षों की यह छाया मधुरिम फैली,
गुरु के जीवन-से ही जैसे मिलती-जुलती शैली।
" अब मैंने यह जान लिया है आखिर ज्ञान कहाँ है,
जहाँ प्रकृति की सस्मित छाया, निश्चित वहाँ-वहाँ है;
जिस ज्ञानी का ज्ञान महल के भीतर ही है रमता,
उसके भीतर बुद्धि-विभा की कितनी होगी क्षमता!
" राज कृपा से जिनका जीवन-मन होता अनुशासित,
फिर तो राजमुकुट से होगी, निश्चित मति-गति बाधित।
अपने और पराये का गुरु भेद करेंगे निश्चय,
अँगूठे का ले दान भक्ति में छेद करेंगे निश्चय।
" अक्षम को सक्षम कहने की होगी तब चालाकी,
खुले हुए हैं भेद, छुपा है क्या कहने को बाकी?
लेकिन यहाँ लगा कि गुरु की दुनिया बहुत अलग है,
एक साथ शशि-सूर्य-विभा से भूतल ही जगमग है।
" जब भी कुछ अवकाश मिला, कुछ कहते, नया बताते,
और नहीं तो आश्रम में ही संग-संग आते-जाते।
सोने से पहले कुठार की कभी कथा कुछ कहते,
' सुनो कर्ण, है परशु तभी तो क्षत्रिय वश में रहते।
' इसी परशु से जाने कितनी बार झुके हैं क्षत्रिय,
ज्ञान और बल से ही होता शमन भुजा का निश्चय;
जब भी अमृत हुआ भुजा का दर्प क्रूरतम घाती,
खिले कुसुम के लिए बहुत; ज्यों, बालक हो उत्पाती।
' इसी परशु का भय दिखलाकर बल का शमन किया है,
ज्ञान और भय दोनों से धरती को त्राण दिया है। '
" फिर कहते हैं ' कर्ण एक तुम क्षत्रिय पूत अमल हो,
और विप्र के श्रेष्ठ गुणों से उज्ज्वल-शुभ्र-धवल हो।
' ज्ञान सेतु है सिद्धि-शक्ति का, शान्ति और समता का
इसके बिना कहीं कोई भी देश नहीं टिक सकता'
बुद्धि अगर कलुषित हो समझो संकट आने वाला,
तो फिर नहीं देवता भी है उसे बचाने वाला।
' ज्ञान बुद्धि है, सद्विवेक है, न्याय-विहग का कलरव,
शास्त्रा बिना तो अस्त्रा, शक्ति के हाथों में है आसव। '
" मिथ्या क्या है, जो कुछ भी कहते हैं मुझसे गुरुवर,
घुमड़ी हैं ऐसी बातें ही मेरे भीतर-भीतरµ
" राज-सिंहासन-छाया में जब ज्ञानीमन ही सोए,
बुद्धि, मनीषा, चिन्ता, मति ऐसे ही क्यों न रोए!
गुरु तो वही, गगन मन जिनका, ज्ञान; वृक्ष का फल हो,
राजनीति से दूर अमल जीवन निर्मल-निश्छल हो।
" गुरु वह शोभित, झुका स्वर्ग हो जिनके द्वय चरणों पर,
जिनकी वाणी गंगा-सरयु, स्नेह; शैल का निर्झर;
गुरु तो वही, शिष्य में अपना विधु-सा रूप बिठाए,
बिना गढ़े इतिहास कभी भी आगे बढ़े न जाए.
" गुरु ऐसे हैं, सुधि भर से ही मन चन्दन हो जाता,
मलयानिल को बहते रहते मैं प्राणों में पाता;
मैं ही क्यों, ये वृक्ष धरा से ऊपर-ऊपर आते,
आखिर किनकी छाया में शीतल छाया ये पाते!
" इन गर्वीले वृक्षों के प्राणों-सा ही तो, गुरुमन,
आश्रम को ये बना रहे हैं कब से अक्षय मधुवन!
गुरु के आश्रम के लायक ही सचमुच में है गिरि यह,
क्षीर नदी के संग कानन, तो दिखता कहीं कमलदह।
" कौलगंग को छोड़ यहाँ पर क्यों आए हैं गुरुवर,
सचमुच में मंदार धरा पर फैला स्वर्ग मनोहर।
अब भी मंथन के उठते हैं लय में नाद अतल से,
गिरि, वन, नदियाँ और पवन, नभ बनते ज्यों चंचल-से।
" अब भी इस्थिर दशो दिशाएँ लगतीं नाद वही सुन,
फंेक रहा हो ज्यों पयोधि ऊपर रत्नों को चुन-चुन।
लहराता हो शेषनाग ही अब भी नीचे-ऊपर,
मंथन क्या, ज्यों युद्ध सजा था भारी भूतल भू पर।
" हाँ, सचमुच ही युद्ध मचा था चुपचुप सुर-असुरों में,
भीषण आग लगी थी जैसे बस्ती, फूस-घरों में।
रुका द्वन्द्व, पर भूल हुई थी यही समझना किससे?
क्या विकास की राह खुलेगी ऐसे ही? बस इससे?
" श्रम का हिस्सा अगर बराबर सबमें नहीं बँटेगा,
होगा ही संग्राम, किसी का धड़ से शीश हटेगा।
और हलाहल जब निकलेगा, बोलो कौन बचेगा?
जो कुछ हुआ, नहीं क्या इससे बोलो लोक हँसेगा!
" मन हो मधुसूदन के जैसा फिर तो जो भी चाहो,
पार नहीं है सुख का कोई, जितना जी हो, थाहो।
यही नदी है क्षीर नदी, यह विष्णुलोक मंद्राचल,
इसीलिए तो दिखता इतना यह अशोक मंद्राचल।
" क्षीर नदी; ज्यों, उतर आ गई सचमुच स्वर्ग-नदी हो,
धवल चाँदनी की गंगा ही जैसे उमड़ी-सी हो;
मधुसूदन के मोद-रास का मणिमय यह तो आश्रय,
उनकी महिमा की विराटता का सिमटा-सा आशय।
" भृगु आए थे यहीं प्रजापति-शिव को ही शापित कर,
देखा मधुसूदन हैं रस में, तो फिर ऋषिवर झामर।
मन पर चोट पड़ी उनके, विश्वास-भंग था अब तो,
पीत-श्वेत से जो दप-दप थे; श्याम-रंग था अब तो।
" उठा चरण को विष्णु-वक्ष पर मारा तत्क्षण कसकर,
मधुसूदन ने लिया चरण को दोनों कर में हँस कर,
और कहा ऋषिवर को हौले ' चोट नहीं तो आई,
क्षमा चाहता हूँ, मैंने जो पीड़ा है पहुँचाई. '
" समझ गए क्षण में ऋषिवर भी महिमा मंद्राचल की,
जहाँ शक्ति-संग शांति-विभूषित होती इस भूतल की;
समझा ऋषि ने क्षमा तेज से होती बड़ी भुवन में,
और यही तो यहाँ बसी है जन-जन के ही मन में।
" मुझसे जो अपराध हुआ था, वह अनजाने में ही,
जगा गए था गुरुवर को बहते निज शोणित से ही;
भले धीरता मेरी हो, पर थी तो वह भी अति ही,
क्रोधित निश्चित हो जाएंगे, भले रहें वह यति ही।
" अति ही दुख का और क्रोध का कारण यहाँ भुवन में,
और यही मणि का वैभव ले जमा हुआ हर मन में;
जब तक उससे मुक्त नहीं होता है मानव का मन,
मुँह पर पुता मिलेगा बन कालिख, आँखों का अंजन।
" गुरु की पीठ लहू से लथपथ थी, जंघा भी मेरी,
उतरी थी आँखों में मेरी कैसी रात घनेरी;
चमक रहे थे नेत्रा उधर खिलते पलाश-से, गुरु के,
हर लेने को प्राण तुरत ही छुटे पाश-से, गुरु के.
" छू कर मुझको निकल गया था; जैसे, यम ही औचक,
नदी, दिशाएँ, पर्वत, वन, नभ सब के सब थे भौचक;
उतर गए गुरु की आँखों में फिर तो मेघ सजल थे,
रुके हुए पलकों के कोरों पर कितने ढलमल थे।
" धन्य भूमि यह, धन्य यहाँ के लोग शील से शोभित,
बाँहों में है शक्ति खेलती, नेत्रा नहीं पर लोहित;
यहाँ योग का जन्म ही नहीं, योग फूलता-फलता,
इसीलिए तो सागर-मंथन का भी पंथ निकलता।
" अहंकार से मुक्त, वायु के साधक, अंगनिवासी,
इनके लिए जगत का वैभव माया, घोर उदासी;
सब कुछ छोड़ यहाँ गुरुवर हैं, कारण खुला हुआ है,
अंगदेश के नर का मन अमृत से धुला हुआ है। "
और तभी गूँजा सितार का स्वर, समीर पर छाया,
सुधि में खोया कर्णश्रवण से बन पराग टकरायाµ
"कर्ण कहाँ हो" परशुराम का स्वर फिर से लहराया?
बैठा वकुल वृक्ष के नीचे कर्ण तुरत ही आया।
चरणों पर झुकने वाला था, गुरु ने उसे उठाया,
बाहों में भर अतुल स्नेह से फिर तो हृदय लगाया;
रहे मौन ही क्षण भर निश्छल, आँखें बन्द किये ही,
स्वर्णवक्ष को खुले हृदय पर वैसे लिए-लिए ही।
फिर कहने वह लगे, " कर्ण, अब काल पूर्ण होता है,
गुरु प्रहार हो तप का, तो फिर क्या न चूर्ण होता है?
तुमने सीख लिया है सब कुछ जो अलभ्य है, दुर्लभ,
समझो सभी तुम्हारे वश में, कुछ भी नहीं असंभव।
" लगन-साधना देख तुम्हारी मैं ही हुआ चमत्कृत,
इतना क्या था सहज, खुलेगा ज्ञान? भेद से आवृत;
मैंने जो कुछ दिया, दिया है तुमने उससे बढ़कर,
देखेगा संसार स्वर्ग को इसी अचल पर चढ़ कर।
" आह, तुम्हारे धैर्य और भक्ति का मूल्य नहीं है,
नर का यह ऐसा आभूषण जो कि तुल्य नहीं है;
" उस दिन जो कुछ हुआ अघट, मैं सोच नहीं पाता हूँ,
मन-ही-मन पीड़ा से लगता है मैं चिल्लाता हूँ।
" ऐसा था वह कीट काल-सा जंघा कुतर रहा था,
पर सिहरा था कर्ण नहीं, जब नभ तक सिहर रहा था। "
परशुराम सिहरे क्षण-पल को सर से पाँव तलक ही,
और देखते रहे कर्ण को प्रमुदित हो अपलक ही।
ले आए आश्रम में उसको, बैठ गए आसन पर,
कुछ अवसाद, हर्ष भी कुछ-कुछ छाये अब भी मन पर;
पा संकेत कर्ण भी बैठा वहीं गुरु के सम्मुख,
कोने-कोने में सिमटे थे हर्ष-विषाद के सुख-दुख।
मौन तोड़ते कहा कर्ण से परशुराम ने ऐसे,
गिरि-अन्तः से झरता हो मृदु स्रोत सलिल का, जैसेµ
" कर्ण प्रात होने में अब तो कुछ ही शेष समय है,
आगे जो भी आनेवाला वह भी निश्चित, तय है।
" कितना है आश्चर्य समय यह तुमसे हार गया है,
उड़ा विहग जो दो क्षण में ही सागर पार गया है।
संवत्सर कब एक मास में सिमटा रहा, न ज्ञात,
देखो कर्ण निकल आया रवि, लिये करों में प्रात।
" जैसे फैल रही है किरणें ऊपर से हो नीचे,
स्वर्णविभा को स्वर्णकोष से लेकर कोई उलीचे;
अब से जीवन खिले तुम्हारा रविप्रकाश-सा, रवि हो,
अग्नि-वज्र हो, वाण-वाणी हो, सचमुच में तुम पवि हो।
" इसी क्षात्रा पर खिले तुम्हारी उज्ज्वल नई मनीषा,
मणि-सा वह भी चमक उठे जो काजल का है शीशा।
कर्ण, तुम्हारा क्षात्रा कभी भी नहीं बुद्धि संग छोड़े,
शक्ति कभी भी मनन-बुद्धि की बाहें नहीं मरोड़े!
" और, अगर ऐसा होता है, समझो कुछ न पाया,
देखोगे, मंद्राचल का रवि यहीं लौट है आया।
मैंने जो कुछ दिया, लोक के हित में हो संधान,
बलिवेदी का पाठ नहीं यह, है हविष्य का गान।
" देव-आचरण से ही होगा और प्रखर यह सिद्ध,
और नहीं तो लौट आएगा मुझसे हुआ समिद्ध;
कर्ण, आज से लोक-हितों में विचरो, जागे सोए,
मुझसे प्राप्त शक्ति से कोई देव-वंश न रोए.
" देव-वंश जो न्याय-नीति के पथ का है अनुगामी,
नर में नारायण के सारे दिव्य गुणों का स्वामी;
उसकी ही रक्षा में अब से अस्त्रा लगे ये सिद्ध,
और नहीं तो लौट आएगा मुझसे हुआ समिद्ध। "
परशुराम चुप हुए, कर्ण भी मौन, करुण था ऐसे,
स्वर्ण शैल पर घिर आए हों मेघ पलों को जैसे।
प्रमुदित कर्ण झुका चरणों पर साष्टांग नभ-घन-सा,
उतर पड़ा मंद्राचल-मुख से वह गतिमान पवन-सा।
फैला है स्वर्णिम प्रकाश, है सोने का साम्राज्य,
रवि का है या अंगराज के कंचन-मणि का राज्य।