नयन सावन हो रहे हैं।
रिमिक-झिमझिम झिमिक-रिमझिम भार हिय का खो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।
वेदना की रश्मि से यह हृदय-पारावार तपकर,
प्रणय-निर्मित पवन-रथ पर गगन-ऊपर जलद बनकर,
अश्रु धाराएँ विरह की छोड़ते ढर्-ढर् निरन्तर,
उमड़ घिर-घिर घुमड़ प्रियतम-चरण-रजकण धो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।
रसोत्प्लवित ‘ऋतम्भरा’ प्रज्ञा विकम्पित हो गई है,
चिर प्रदीपित वर्त्तिका, वह वात-सम्पित हो गई है,
हृदय-सर की प्रणय-हंसिनि धूल-शायित हो गई है,
मरण-जीवन निशि-दिवा में प्राण बेसुध सो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।
रस-प्रफुल्ल वसन्त को क्यों दे करील मृषा विदूषण?
वेणु क्यों दे दोष? अकलुष-गन्ध-चर्चित मलय-चन्दन,
तुम नहीं प्रिय निन्द्य; मैं ही मलिन, कलुषित, अन्ध-लोचन,
पंख-भंग विहंग-से यह हंस सिर धुन रो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।
फेन की अट्टालिका जग में कहो, किसने उठाई?
गगन से ले सुमन किसने गूँथ कर माला बनाई?
बिन चढ़े शूली, कहो, किसने ललन से की मिताई?
काकगोलक न्याय यह, मन मौन शंकित हो रहे हैं;
नयन सावन हो रहे हैं।
(रचना-काल: जनवरी, 1940। ‘साधना’, मार्च, 1940 में प्रकाशित।)