प्रणव-धनु पर प्राण-शर धर
शब्दवेधी साधना कर।
कल्पना के कल्प बीते,
आयु-घट अनगिनत रीते;
पथ वही, घाटी वही है,
घूमकर तू भी वहीं पर।
कामना थी स्वर्ण-मृग की,
देख ली करतूत दृग की;
ताकता ही रह गया तू,
वेध का आया न अवसर!
अब भरमना छोड़, पगले!
बाँध मन का मंच पहले;
श्रवण-तत्पर, अलख पद की
सूक्षम ध्वनि धर, रे धनुर्धर!