प्रतिज्ञा / स्टीफनी हैरिस / प्रेमचन्द गांधी

रात का खाना एक कुरबानी है
बासी खाना और करीने से सजी मेज
जैसे ही वह उंडेलता है उसमें अपने दुख
वह इस कदर भर जाती है दुखों से कि
बमुश्किल हिल-डुल पाती है
फिर भी वह हर शाम उसे अपनी ही तरह अपनाती है
सूप और सलाद के दौरान
सुकून का जाम सजाने के बीच
उसके गिलास में ताकत भरते हुए
ख़ुद का गिलास उसका खाली ही रहता है

इसमें कुछ भी नया अथवा असामान्य नहीं है
उसकी मां और दादी ने भी यही सब किया होगा

मैं खुली आंखों से दुनिया देखने वाली
ग़ौर से देखती हूं यह सब
और प्रतिज्ञा करती हूं कि
जब मैं गिलास भरने लायक बड़ी होउंगी
तो सिर्फ एक गिलास होगा और
वो होगा मेरा अपना केवल...

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