Last modified on 24 जुलाई 2019, at 13:28

प्रतिज्ञा पर्व / अमरेंद्र

अमा निशा की घोर तमस है फैली हुई सभी ही ओर,
श्यामा के चरणों के नीचे दबा हुआ है श्यामल भोर।
कभी-कभी बस दूर कहीं पर टिटही की उठती चित्कार,
जिससे करवट लेता रहता जमा हुआ तम का संसार।

लेकिन अब भी देवनदी का बंद नहीं है सुर-संगीत,
घोर निशा की घनी कालिमा भीतर-भीतर है भयभीत।
कुंजरपुर का थमा हुआ है अब भी साँसों का व्यापार,
निपट शांति में निद्रालस है गजपुर का फैला संसार।

एक कोट ही जाग रहा है अनल शलाकाओं के बीच,
जीवन का संकेत नहीं है, दूर कहीं या कहीं नगीच।
जाग रहा है अब भी लेकिन कर्ण कोट में लेटा शान्त,
इतना कभी नहीं था वह तो जितना दिखता है उदभ्रान्त।

आँखें अपलक टँगी शून्य से, भौंहों पर चिन्ता का भार;
लुटी गई हों निधियाँ सारी, खुला पड़ा हो घर का द्वार।
उठा बिना आहट के हौले, निकल गया गंगा की ओर,
अब भी श्यामा के चरणों में दबा हुआ है श्यामल भोर।

बैठ गया वह वही शिला पर, देखा दूर क्षितिज के पार,
जाग उठा पांचालराज का आँखों में झिलमिल संसार।
खुलने लगीं विगत की बातें, बजते हैं सुधियों के छंद,
मन-ही-मन में बोल रहा है कर्ण किए आँखों को बंदµ

" सजा स्वयंवर कोट बीच में, स्वर्णखंभ वे चारो ओर,
देश-देश से आए नरपति देख-देख कर ठगे विभोर।
जरासंध ही नहीं युयुत्सु, दुःशासन, दुर्योधन, भोज,
और सभी के बीच गूँजता धृष्टधूम्र का घन-सा ओज।

" पहुँची थी मंडप समीप तब कृष्णा लिए करो में माल,
आँखों में आकाश लिए तब चकित खड़े थे सब दिकपाल।
कृष्णा की काया से आभा उठती थी; ज्यों उठता भोर,
नरपति के मन विहगवृंद-से कलरवपूरित अथा-अछोर।

" कैसा कठिन धनुष था भारी और लक्ष्य का भी संधान,
पीत पर्ण से टूट-टूट कर गिरते राजाओं के मान।
मैं जब उठा लक्ष्य वेधने कृष्णा बढ़ी उठाए हाथ,
'अरे, सुत से कैसे होगा मेरा आजीवन का साथ।'

" छूट गया था धनुष हाथ से लक्ष्य साधना कोसो दूर,
स्वप्न सजाए जो आया था, टूट गिरा वह चकनाचूर।
समझ नहीं पाया मैं कुछ भी आखिर हेय बना क्यों सूत?
लेकिन देर लगी न मुझको, समझ गया था मैं आकूत।

" कृष्णा का तन अग्नि शिखा-सा दमक उठा था बनकर लाल,
कंपित थे कण्ठा, कंगन और लाड़ी बनकर चंचल व्याल।
हँसुली और उमेल, पाटियाँ, दुलरी, तिलरी, चंदन हार,
कृष्णा के रंग में डूबे थे आभूषण सारे शृंगार।

" मैंने शुरु से ही जानी थी जन्मकथा कृष्णा की गूढ़,
भ्रमवश भूल गया था सब कुछ, मैं कितना हूँ सचमुच मूढ़।
था संकेत द्रोण गुरु का ही, 'दु्रपद बंदी हो' , का आदेश,
पार्थतेज से पांचालों का बदल गया था घर-परिवेश।

" उसी आग की संतति हैं यह, धृष्टधूम्र-कृष्णा के रूप,
इस रहस्य से कौन भिज्ञ है, छोड़ द्रुपद को कोई भूप?
माना कि कृष्णा न जाने-पहचाने न पांडव पाँच,
इसीलिए न उधर जा सकी प्रतिहिंसा की उठती आँच।

" लेकिन कैसे द्रुपद रहे थे पांडव से? ब्राह्मण के भेष,
छुपा नहीं अब कुछ भी मुझसे; ज्ञात नहीं क्या ऐसा शेष।
पांडव के पीछे से अब तो कुरुकुल का होना ही नाश,
छूट चुका है महाकाल के सर्वनाश का टोना-पाश।

" शिव का रीता नहीं गया है पंचकान्त का वह वरदान,
और इसीके साथ डूबता मैं देखँू कुरु का दिनमान।
मति मारी है गई सभी की बुद्धि इसीसे भटकी, भ्रान्त,
यह आँधी भी नहीं रुकेगी, जब तक ताप नहीं है शान्त।

" लक्ष्यभेद करने वाला वह अर्जुन नहीं, तो है यह कौन?
विप्रभेष में यह परिचित-सा बैठा है दम साधे मौन।
यही जाँचने को स्वयंवर में अर्जुन की रोकी थी राह,
गज को जैसे गहरे नद में पकड़ घसीटे कोई ग्राह।

" वह तो तत्क्षण जान गया मैं, विप्र नहीं हैं, पांडव पाँच,
मिथ्या के हिरणों की चलती अधिक समय तक नहीं कुलाँच।
अगर चाहता द्वन्द्व ही सचमुच, तो टिक पाता आगे कौन?
आखिर कुछ तो सोच-समझकर इसके बाद रहा मैं मौन।

" क्या अर्जुन, क्या भीम, युधिष्ठिर और नकुल क्या या सहदेव,
कूल-किनारे कब टिक पाते जब उठता चानन का ढेव।
चम्पा की तो एक हाँक पर चू जाता नीचे आकाश,
थम जाता है कालचक्र तक, रुक जाता है यम का पाश।

" इसी भीम को जंजीरों में बाँध डुबोया था एक बार,
किसको पता नहीं है इसका, जाने क्या केवल दो-चार?
जो प्रारब्ध, वही तो होना, रोका अपने को यह सोच,
और नहीं तो 'सूत' कथन पर रख लेता मैं हृदय दबोच!

" ज्ञात सूत का अर्थ उसे क्या, क्षत्रिय-ब्राह्मण का यह योग,
तात क्षत्रिय, हो माँ विप्राणी सूतवंश का यह संयोग।
कभी वंश पर, कभी कर्म पर, नर-मुनि, जो भी उलीचे कीच,
अंगपुत्रा मैं घोषित करता, सभी प्राणियों में वह नीच।

" लेकिन मुझको तो चिन्ता है हस्तिनपुर की ही दिनरात,
जो कुछ घटा स्वयंवर में था, वह क्या है छोटी-सी बात?
कृपा, द्रोण-आँखों में जो झलका था वह पांडव का मोह,
गुरु की मुझ पर क्रोध-घृणा वह, कहाँ भूलता हूँ मैं, ओह!

" और कृष्ण की भेदभरी वह मानसरोवर की मुस्कान,
चाहूँ सब कुछ भूल चलूँ, पर वहीं लौट जाता है ध्यान।
भीष्म पितामह की आँखों में मेरे लिए घृणा का भाव,
और विदुर क्या कम रखते हैं, मुझसे दूरी, भेद, दुराव?

" एक नीति बस, क्रिया शल्य की, क्या असह्य है मेरी पीर,
अगर देवता भी होता तो हो उठता वह बहुत अधीर।
लेकिन मैं झुक जाऊँ, यह तो कभी नहीं संभव-आसान,
कर्ण अगर नवनीत कहीं तो और कहीं पर्वत-पाषाण।

" यह बुढ़िया आँधी क्या मुझको कभी सकेगी भी झकझोर?
मंद्राचल क्या कभी हिलेगा, भले लगाए जी भर जोर।
इसमें दोष कहाँ है मेरा, अगर सुयोधन के मैं संग?
वह मुझको जब अंग समझता, मैं भी उसका अपना अंग।

" अब तो मित्रा नहीं है केवल, साढ़ ू का रिश्ता-सम्बंध,
ऐसे कैसे टूट चलेगा जीवन भर का जो अनुबंध।
मैं ही कहाँ चाहता हूँ यह, पांडव के हित का अवसान,
लेकिन जहाँ टिका था मेरा, वहीं टिका है अब भी ध्यान।

" द्रुपद कभी क्या हो सकते हैं हस्तिनपुर के हित में साथ?
शाप छुपा है, वर देने को उठा हुआ जो ऊपर हाथ।
अब तो दृढ़ यह और हो गया, मिथ्या न मेरा विश्वास,
भरी सभा में क्यों होता है बार-बार मेरा उपहास।

" सूतवंश की ज्ञात नहीं है किसे कथा उज्ज्वल छविमान,
इसीलिए तो छोड़ गए हैं अंश यहाँ अपना दिनमान।
अंगदेश के नृप अधिरथ का, उनके यश का अंश-प्रतीक,
अब मुझको चाहे जो कह ले, काल कहेगा कितना ठीक!

" कुंजरपुर को छोड़ नहीं मैं सकता हूँ संकट में देख,
खिंची आ रही भाग्यपटल पर जो विनाश की काली रेख।
भीष्म पितामह से लेकर यह कृपाचार्य को होगा ज्ञात,
लेकिन कृष्णा को लेकर सब चुप हैं, जहाँ निकट उत्पात।

" यह विनाश की एक कला है, खिंची हुई टेढ़ी-सी रेख,
जो भविष्य में घटने वाला, उसका कौन लिखेगा लेख!
अगर सुयोधन नीति मुताबिक धर लेता है सीधी राह,
मिट जायेगा द्वेष द्रुपद का, उनकी जो कुछ भी है चाह!

" राज्य नहीं केवल संकट है, छिपा हुआ है भीतर मूल,
निकट-निकट ही शांत पवन है, आगे तो बस अंधड़-धूल।
राज्य द्रुपद को बहुत अधिक है, दे सकते थे अपना राज,
लेकिन उनको रोक रखा है, उनके भीतर बैठा बाज।

" मेरे मन का भय है ऊपर, दबा हुआ था अब तक मौन,
अब विराट ले रहा रूप है, अँगुल भर का वामन बौन।
लेकिन ज्ञात हुई जब होगी मेरी कुटिल अनोखी चाल,
जीत स्वयंवर दुर्योधन के कर में दूँ कृष्णा को डाल।

" इसीलिए थी अग्नि अचानक; लपटें बन कर फूटे वाक्,
मिट्टी का घट फूट चुका था, टूक हुआ था पूरा चाक।
टूट गया होगा तब कैसा मन का शरत भरा आकाश,
छूट पड़ा था इसी बात पर वाणी का विष फेनिल पाश।

" प्रेम चाहता ही है मन का पूर्ण समर्पण संग विश्वास,
और अगर यह नहीं मिले तो वही पवन उठते उनचास।
तन का लोक, लोक में मन का सौरभ से संचित संचार,
क्षुद्र बुद्धि से घिरा रहा मैं तोड़ हृदय का वह आभार।

" मैं ही नहीं समझ पाया था अपने मद में अपना दोष,
बस उतारता ही रहता हूँ झूठा व्यर्थ सभी पर रोष।
लेकिन अब तो सिंघु-ज्वार ही और विन्दु-सी दिखती नाव,
फिर क्यों कूल-किनारे पर होने का उठता मन में भाव!

" अब तो कुरु-कुरुपति का केवल प्रश्न यहाँ पर पसरा शेष,
फिरता है जो ब्रह्मभूत का लिए हुए कापालिक भेष।
देख रहा हूँ नियति नटी को जो कुछ खेल रही है खेल,
राजभवन का छल-अनीति से भीतर-भीतर बढ़ता मेल।

" माँ गंगे, इतना अब बल दो, रोक सकूँ यह टेढ़ी चाल
उठा सके कुछ और अंग यह हस्तिनपुर का ऊँचा भाल।
उठा सुप्त सागर में ज्वारें, काँपे नभ में छाया नील,
छत्रा ज्ञान का हिले, अभी भी लक्ष्य वेध पर संयत भील। "

फड़की बाहंे, चमकी आँखें, कर्ण हुआ कुछ अधिक सचेत,
कुछ-कुछ हेम रंग में डूबी गंगा की चाँदी-सी रेत।
अभी क्षितिज पर दिखा नहीं है सूर्य रश्मियों का मृदु भोर,
अनजाना सुख कर्णहृदय में मचा रहा है कलरव-शोर।
लौटा कर्ण भुजाओं में भर नवजीवन का ले कर वेग,
तपते हुए जेठ पर श्यामल पड़ते हैं सावन के डेग।