तुम्हें--
उपहारस्वरूप देने को
कितनी ही
रंग-बिरंगी/शब्दों की
तितलियाँ सहेजी थीं मैंने--!
सोचा था, जब तुम मिलोगे
तब, सारी की सारी तितलियाँ
तुम्हें सौंप दूँगी, जिनके
आकर्षक पंखों पर सवार हो
तुम--
यथार्थ की धरती से
सपनों के आसमाँ तक
उड़ान भर आया करोगे--!
पर न जाने क्या होता है
हर बार, जब भी तुम मिले हो
और मैंने--
सौंपनी चाही हैं तुम्हें
रंग-बिरंगी/शब्दों की
आकर्षक तितलियाँ
वे सब की सब
एक-एक कर हाथ से फिसल
उड़ गईं--न जाने किस ओर!
मेरे पास/बच रही केवल खामोशी
और--आँखों में उड़ती तितलियों के प्रतिबिंब
सुनो दोस्त--
तुम इन प्रतिबिंबों के
अर्थ समझ लोगे न--?