वह प्रतिमा
अनजान नहीं है
अपने सृजक व संहारक हाथों से
सचेत है वह
हाय-हाय व जयकार से
भावना है वहाँ
भावना की भाषा को
जरूरत नहीं होती
मान्यता की
वह तलाश ही लेती है
माध्यम
अपनी अभिव्यक्ति का
राग-रंग,
हर्ष और दु:ख की
होती सदैव एक ही भाषा।
वह प्रतिमा
अनजान नहीं है
अपने सृजक व संहारक हाथों से
सचेत है वह
हाय-हाय व जयकार से
भावना है वहाँ
भावना की भाषा को
जरूरत नहीं होती
मान्यता की
वह तलाश ही लेती है
माध्यम
अपनी अभिव्यक्ति का
राग-रंग,
हर्ष और दु:ख की
होती सदैव एक ही भाषा।