Last modified on 7 नवम्बर 2014, at 21:23

प्रतिसंवेदन / शेषनाथ प्रसाद श्रीवास्तव

मित्र !
     यह सामान्य सा अनुभव है कि
     कोख के अंधेरे में ही
     प्रच्छन्न होती है कोई प्रभा
     और कोख की ही उष्मा से पोषित हो
     किसी माता की गोद में
     वह आँखें खोलती है
     कोई वपु धारण कर.

     वह वपु कभी तुम्हारा होता है कभी मेरा
     इस वपु में ही
     हमें पूरी करनी होती है
     अपनी जीवन यात्रा.

     मित्र !
     तुमने अपनी यात्रा पूरी कर ली
     तुम अब समय और सीमा से अतीत हो
     तुम्हारे ठोस वपु के अणु
     अब प्रकृति के स्पंदनों के साथ
     एकलय हो चुके हैं
     किंतु मैंने
     जीवन के सूक्ष्म स्पंदनों,
     उसके उष्मल पदचापों को
     अभी ही सुना है
     अभी ही मेरे भीतर कुछ झंकृत हुआ है.
                     
     इन झंकारों ने
     संपूर्ण जीवन-प्रसंगों की
     जीवंत संवेदनाओं से
     मेरे पूरे अस्तित्व को
     अभी ही तरंगित किया है.

     मैं अनुभव कर रहा हूँ
     इन तरंगों से तरंगायित मेरा सर्वांग
     संसार में संसरित होते हुए भी
     मुझे अकेले की अनुभूति से
     भरे दे रहा है.

     मुझे लग रहा है
     मैं अकेले की नाव पर सवार हूँ
     मेरे पल अकेले के हैं
     यात्रा भी मुझे अकेले की
     और अकेले तक की ही करनी है.

     मित्र !
     मेरी यह अनुभूति
     पूरी है या अधूरी, मैं नहीं जानता
     पर तमाम अहजहों के होते हुए भी
     रुक रुक कर ही सही
     मैंने अपने कदम बढ़ा लिए हैं
     अब परिणति की चिंता क्या
     अनुभव की संपदा ही बटोर लॅू
     यही बहुत है