आश्विन के आस मेॅ बैठलोॅ
काँच के पतलो सेॅ ज्यादा चिकनोॅ
ज्यादा सुन्दर
ज्यादा चमकदार
आश्विन के ऐथैं आवी गेलै
हाथोॅ सेॅ अपनोॅ रेशमी चादर
आकाश तक उड़ैतेॅ
कोॅन-कोॅन फूलोॅ के इत्तर सेॅ
गमकै छै सौसे ठो देह
कोॅन-कोॅन पक्षी के बोली मेॅ
बोलै छै प्रेमोॅ के बात
भरी दिन, भरी रात।
केकरोॅ लेॅ हेनोॅ
ई ऐत्तेॅ रूप सजैलेॅ छै
नीपी-पोती राखलेॅ छै
घर-ऐंगन
पोखर सेॅ नद्दी तांय
बारी मेॅ बोलै टिटहरी छै
कातिके में ऐतै अतैया
तब तांय हेने ही सजली
बनी-ठनी घूमतै ही रहतै शरत
मन मेॅ हुलास भरी
आस भरी।