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प्रतीक्षा / नूपुर अशोक

सिंड्रेला की वह ख़ूबसूरत जूती
मैंने बड़े जतन से संभाल कर रखी हुई थी
इस आस में
कि शायद किसी दिन वह मुझे मिल जाए
शायद किसी दिन वह खुद आ जाए
अपनी जूती की खोज में
और एक दिन वह आ ही गयी,
अपनी जूती लेने के लिए नहीं,
यह कहने के लिए
कि उस जूती को फेंक दो
किसी कचरे के ढेर में,
अब वह उसके नाप की नहीं रही।