ओह! विदा माँगने आईयह क्षीण हुई उजियाली।
मैं व्यस्त हो उठी अब तो लखकर पश्चिम की लाली॥
आशा की लहरें ठगकर यह सूना-सा अन्धेरा।
रो उठतीं दूर क्षितिज पर रुकता-सा हुआ बसेरा॥
हम नहीं मानते फिर भी इस नैराश्य को, आखिर।
जा-जाकर फिर आ रुकते उस पार वहीं होकर स्थिर॥
कैसे सुलझाऊँ मन को? निष्प्राण नेत्र हैं चाहें।
उलझाती ही जाती हैं, वह भीगी-भीगी आहें॥
इस पीड़ा में भी क्रीड़ा-कौतुक की अद्भुत खेलें।
अब नहीं सँभाले जाते उद्देश्य-विहीन झमेले॥
कब से बैठी करती हूँ प्राणों से सजल प्रतीक्षा।
ना-लो! बस दे न सकूँगी निर्मम! अब अधिक परीक्षा।