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प्रतीक्षा / राजेश चड्ढ़ा

दूर पर्वत पार से-
जैसे
पहाड़ी राग-
बुलाएगा कभी,
इसी प्रतीक्षा में,
ओढ़ कर
सन्नाटे को-
बिछा हुआ हूं,
रेत पर-
कब से !