स्वर्णरेखा द्रुतगामी के प्रांजल डब्बे में
हो रही थी बातें !
आने वाले दिनों की
कमलिनी संभावना
कोई बोल रहा था
अच्छे दिन आयेंगें
अवश्य आयेंगें
है विश्वास उस सरल व्यक्तित्व पर
जिसने कहा था
जनतंत्र के महापर्व में
विविध मंचों से ...
अरे भाई, है कोई ?
जादू की छड़ी उसके हाथ !
लेकिन आयेंगें अवश्य भारत में
अच्छे दिन ...
मैं अपनी सीट पर दुबका हुआ
कर रहा था
असहज महसूस
कोयलांचल की राजधानी से
ब्रह्मकाल में उठकर
टाटा नगरी की यात्रा
ऊपर से देररात तक का जगा हुआ
लेकिन करता क्या ?
उन नेताओं की संख्या थी ज्यादा
लगभग सारे लोग !
जनता नहीं नेतागण
अच्छे दिनों की
उमंग में थे मतंग
मैं गुमसुम
कर रहा था -" प्रतीक्षा "
किसी वासुदेव की
द्रौपदी के समान
जो बचाये मेरी लाज
करे शांत इन राष्ट्र चाटुकारों को
तत्क्षण भंग हुआ
मौनव्रत ! एक अधेड़ का
जो अपने बालक के साथ
फटेहाल बैठा था एकांत
दीनहीन परन्तु विद्वत
समय का मारा. ..
चिल्ला उठा " ख़ाक आयेंगें अच्छे दिन "
करते रहो "प्रतीक्षा " !
कोई नहीं बदल सकती किस्मत
हम लाचारों की...
अपने तर्कों से कर दिया सबको
अचंभित और मूक
क्योंकि नहीं था वह
कोई स्वार्थी नेता...
गूँज रही है अभी भी
मेरे कानो में...
उसकी अंतिम काव्यात्मक छंद ...
"साधनहीन के आँगन बाड़ी
कभी नहीं गूंजे किलकारी
आर्यावर्त की एक ही बीमारी
जनजन बन बैठा व्यापारी
ईमान- धर्म पर चोरी भारी
आशा में बैठी दुखिया बेचारी
जड़-चेतन की कालाबाजारी
वाकदेवी सब सहती लाचारी
मासांत में तंत्रक भरमाते हैं
दिवास्वप्न ही दिखलाते हैं
जहाँ बहुतेरे उल्लूओं का मेला
क्या लय छेड़े कोयल अकेला
सब चुप थे...
नहीं था किसी के पास जबाब
उस बेचारे के सवालों का !
कहीं उन्हें भी हो गया हो
डर-शंका वा संदेह
फिर से ठगे जाने का