Last modified on 10 अगस्त 2012, at 12:04

प्रतीक्षा गीत / अज्ञेय

हर किसी के भीतर
एक गीत सोता है
जो इसी का प्रतीक्षमान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे
जमी परतें पिघला दे
और एक धार बहा दे।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत
जिसे मैं ने बार-बार जाग कर गाया है
जब-जब तुम ने मुझे जगाया है।
उसी को तो मैं आज भी गाता हूँ
क्यों कि चौंक-चौंक कर रोज़
तुम्हें नया पहचानता हूँ-
यद्यपि सदा से ठीक वैसा ही जानता हूँ।

हाइडेलबर्ग, 1976