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प्रत्यावर्तन / विमलेश शर्मा

ज़िंदगी के सफहे उलटने के क्रम में अक़सर
दो क़दम बढ़ते हुए
चार क़दम लौटना होता है

एक घुमावदार चक्कर पर
निमिष भर ठहर कर सोचना होता है
सुननी होती है सजग कानों से
हवा के असाधारण स्वर के बीच पत्तों की खड़क अनमनी
बूझना होता है आरोह-अवरोह के मध्यस्थ
किसी अंक का ठहराव

या कि खोजना होता है
श्वास-प्रश्वास के बीच थिर का ठिया कोई
जहाँ रुक कर आत्म-चिंतन किया जाए
कि जितना चले हैं क्या वाकई चल पाए हैं?

जब मीलों यात्रा करने के बाद भी
क़दम वहीं आ थम जाते हैं
जहाँ से चलने की राह ठानी थी
तो निष्कर्ष निकलता है
कि
नियति क्रूर होती है!

पर वहीं जब कहीं दूर
आसमां उजला और शफ़्फ़ाक नज़र आए
तो नियति का कर्मचक्र
भला लगता है

कारण वहीं शाश्वत
कि मन सदैव अनुकूलताओं के गलियारों में भटकता है!

विचारों के मकड़जाल में प्रत्यूष चमक-सी
एक तथागत की तस्वीर सामने है
वे लौट रहे हैं कहीं
या शायद कहीं को जा रहे हैं

टोह कि मोह
यह भाँप पाना मुश्किल है
उनके पैरों पर पथरीले रास्तों से उपजी बिवाइयों के निशाँ हैं
उन पैंरों की छुअन के एहसास मात्र से
मेरे हाथ का कपासी रुमाल सिकुड़ जाता है
दिल में एक काँटा-सा चुभ जाता है!

जिसने नहीं देखा इस जीवन को
वे इसकी कल्पना भी न कर पाएँगे
और जिसने देखा वे
रात के अंतिम पहर तक बुदबुदाएँगे

"रुको!
रात बीत जाने दो
फ़िर मन को तरतीब देना
उसके अंगों की गोराई को सहेजना
किसी अड़ियल दर्पण की ओट से!

और चल देना फ़िर
चलते रहना सतत
जब तक इस साधारण जीवन में
असाधारणता की खोज जारी रहे!