दोहा
मंगलाचरण
1.
गुननिधि ज्ञानपयोधि गुरु, गंगा गौरि गणेश।
गगनगामि ग्रहगन भगन, गरुड़गामि गिरिजेश॥
2.
विविधविवुधव्रजवन्द्यपद, विधि व्रजपति अवधेश।
होथु सहायक श्रीसहित, सदा शारदा शेश॥
3.
शिव, सुरपति, शिखि, सूर्यसुत, सिंहीसुत, सलिलेश।
श्वसन, सोम, विधि, शेष, सब पुरबथु आस दिशेश॥
4.
जनिक दयासौं जगत में, जनक भरै अछि जेब।
देशदेव, कुलदेव, ओ, ग्रामदेव गृहदेव॥
5.
देथु सुमति जहिसैं हमर, भाषा सरस सुरेब।
होए मृदुल मंजुल मुदा, नहिं पुनि फूसि फरेब॥
6.
जगजननिक जननी हमर-जनकजननि-जनिधाम।
जतय जनक पालक जनक-सन विनुतनक अकाम॥
7.
सनकआदि ऋषिगनक छल, पुरल मनक सब काम।
सिद्ध शुकादि प्रसिद्ध छथि, पाबि सिद्धि जहिठाम॥
8.
गौतम ज्ञानीगनक गुरु-याज्ञवल्क्य गुनधाम।
वाचस्पति मण्डन-मदन-सदृश विज्ञ प्रतिगाम॥
9.
कृतियोजन-विस्तृत सपद-नखयोजन आयाम।
विविध-रत्नमनि-मय जनिक, हिमगिरि मुकुट ललाम॥
10.
परसि दहिनकर गण्डकी, हरषि कौसिकी वाम।
चरण पखारथि सुरसरित, निजजलसौं अनुयाम॥
11.
सुजल सस्य सबसमयभव, कदली कटहर आम।
सकल सरसफल सबहिकैं, सहजसुलभ विनुदाम॥
12.
मृदुल मंजु मोक्षद मही, मिथिला जनिक सुनाम।
तनिक चरणरजपर हमर सादर सतत प्रणाम॥
13.
नहिं तादृश सुरपुर सुखद, जादृस जन्मसुभूमि।
नहिं जननीसम आन हित, देखु विश्वभरि घूमि॥
14.
धारि उदर दश-मासधरि, सहि नित विविध कलेस।
हमर सुरक्षाहेतु पुनि, पूजल गौरि-गणेश॥
15.
जन्म भेल तहिसमय नहिं, निजदुखदिस दय ध्यान।
मनहिं मनौलनि देवसौं मुदित हमर कल्यान॥
16.
उर लगाय राखथि सतत, बुझि हमरा निजप्रान।
बुझथि हमर मल-मूत्रकैं, अतर-फुलेल समान॥
17.
पड़ल हमर मलमूत्रसौं आँचर-कोंचा दाग।
होथि मुदमें मगन, मानि अपन धनि भाग॥
18.
हमर मलिन मुख देखि कय, दहलय जनिक करेज।
कौखन देखि प्रसन्नमन, ठोकि सुताबथि सेज॥
19.
कौखन देखि कनैत झट, पालन उपर सुताय।
मन बहलाबथि हमर पुनि, नहुनहु आस लगाय॥
20.
छनभरि हमरा सून्यमें, छोड़ि कतहु नहिं जाथि।
रहथि लगौनहिं हृदयमें, यदि कौखन बहराथि॥
21.
नहिं पुनि ठण्ढा-पानिसौं, उषमहु समय नहाथि।
हमरा सरदिक भीतिसौं, दही-भात नहिं खाथि॥
22.
नहिं अगहनमें भात नव, नहिं अषाढ़में आम।
नहिं चैतहु नव जव चना, नहिं भादव में साम॥
23.
बैसथि सिसिरक समयमें, लै बोड़सिमें आगि।
सेदथि हमरशरीर पुनि, रातिरातिभरि जागि॥
24.
हरथि ताप उषमहु समय, बीअनि सतत घुमाय।
पोसल हमर शरीर नित, उबटन तेल लगाय॥
25.
हमरहि दुखसुखकैं अपन, दुख-सुख सतत जनैत।
सेवा कैलनि हमर अति, नहि निज कष्ट गनैत॥
26.
भेलहुँ चेष्टायुत तखन, आङुर अपन धराय।
‘दिगदिगथैया’ शब्द कहि, देलनि चलब सिखाय॥
27.
ई थिक माँथा कान ई, आँखि नाक मुँह ठोर।
पेट हाथ ई पैर थिक, ई आङुर ई पोर॥
28.
बाबा, बाबू बहिन ई, काकी भौजी भाय।
कहि बाजब सिखबैत पुनि, सबकैं देल चिन्हाय॥
29.
जायबमें चौपाड़िपर, “हो न कनेको देरि”।
ई बुझि दोसर काज तजि, भानस करथि सबेरि॥
30.
दिनमें साँझक हेतु नित, राखथि कय ओरियान।
साँझहि प्रातक हेतु पुनि, हमरा लय जलपान॥
31.
जे कोनो किछु वस्तु हम, माङी हँसि वा कानि।
से निज घर नहिं होय तौं, देथि कतहुसौं आनि॥
32.
आबय बैन सनेस जे, से अपने नहिं खाय।
राखथि हमरहि हेतु सब, नीक निकुत जुगुताय॥
33.
जाधरि हम नहिं खाइ ता, देथि मूँह नहि अन्न।
विसरि जाथि सब दुख अपन, हमरा देखि प्रसन्न॥
34.
सूतब बैसब चलबमें, नित हमरहिपर ध्यान।
राखथि, जहिना भक्तजन, निजमनमें भगवान॥
35.
बीतल शैशवसमय सम, गरमी वरषा जार।
जनिक कोड़-सुरतरु हमर, छल सुखमय संसार॥
36.
तनिक अमलपदकमलसौं, छनहुँ हँटय जौं ध्यान।
तौं जगमें के अधमतम, दोसर हमर समान?॥
37.
जौं निजजननी सैं उऋण, होबक हो मनकाम।
तौं देहहुकैं बेचि की? भेटि सकै अछि दाम॥
38.
ई बुझि अम्बक चरणपर, हम केवल अनुयाम।
अर्पन अरचि करैत छी, अपन अनन्त प्रनाम॥
39.
जे पालन कैलनि पिता, लालन सोदर भाय।
प्रेमसहित निश्छल छला, सबदिन हमर सहाय॥
40.
पिति आइनि भाउजि बहिनि, रक्षा सहित दुलार।
कैलनि तनिकहु प्रति हमर, नतितति बारम्बार॥
41.
जहिभाषावल सिखल हम, संसारक किछु ज्ञान।
से नहिं मानस सौं हँटथि, देथु सुमति भगवान॥
42.
पसरल विद्यापतिक यश, जनिक विमलपद सेवि।
मातृभारती हमरि से, जयति मैथिली देवि॥
43.
अवतरण-
सद्गति हो सतसंग सौं, दुर्गति नीचक संग।
दुष्टसंग तजि साधुसौं, मिलक करी तैं ढंग॥
44.
भेला हिंसा कर्म तजि, बालमीकि मुनिवर्य।
पलमात्रक सतसंगसौं, नहिं मानव आश्चर्य॥
45.
खलसर्पक संसारमें अति अदभुत अछि बात।
डसइछ एकक कान तौं, होए दशक अभिघात॥
46.
कुटिला पापिनि मन्थरा, अदभुत सापिनिरूप।
डसलक केकइकानमें, मुइला दशरथ भूप॥
47.
केकइसनि बुधियारि से, आनक कहिनी सूनि।
पौलनि फल विपरीत ओ, पछतौलनि सिरधूनि॥
48.
तैं ज्ञानी संसारमें, काज करै छथि जानि।
पयर धरै छथि देखि पथ, जल पिबैत छथि छानि॥
49.
नरनारिक कर्तव्य की? अकर्तव्य की थीक?।
की कयने अधलाह ओ, की कयने फल नीक॥
50.
ककर त्याग जगमें करी, करी ककर अवलम्ब।
से सिखबै छथि प्रगटभै, जगतपिता-जगदम्ब॥
51.
‘रामायण’ बहुविध निरखि, समटि ततयसौं सार।
सुजन-हृदय-सुखहेतु तैं, निजबुद्धिक अनुसार॥
52.
कयल लिखक अभिलाष मन, सुरनरमुनिगनगीत।
जगजननी-श्रीजानकी - जीवनचरित पुनीत॥
53.
कत अगाध गुनगन हुनक, कत हम अति मतिहीन।
कीनय चललहुँ रतन नव, लय कर कौड़ी तीन॥
54.
शेष गणेश सरस्वती, जनिक विमल गुनगान।
छथि करैत अनुखन तदपि, नहिं होइछ अवसान॥
55.
से दोसर कहि सकत ई, होए तखन विश्वास।
दण्ड हाथ लय पंगु यदि, आबय नापि अकास॥
56.
“सुखद चरितचरचा हुनक, सविधि अविधि बहु थोड़।
तरल, सजल, भूजल यथा, सबविधि पथ्य परोड़॥”
57.
ई बुझि विद्यापति प्रमुख, जनमि जनिक जनिधाम।
निजमृदुभाषामे सरस, सुरुचि कवित्व ललाम॥
58.
पूर्व सुकवि कय गेल छथि, रचि रचि कृति अभिराम।
अमरभारती सौं अधिक, हमर भारतिक नाम॥
59.
कुण्डलिया-
अपन बुद्धिभरि हमहु तैं, वानी अपन पवित्र।
करकहेतु कर कलम गहि, गायब अम्बचरित्र॥
गायब अम्बचरित्र मित्रजन होथु मुदितमन
गुन गनि, हयता मुदित स्वभावहि दोषनयन जन।
रहथु निकैं सब गनब दोषगुन ककर कहाँधरि?
निरपराध थिक मनुज कहय जे अपन बुद्धिभरि॥
60.
रोला-
जतय कथन संक्षिप्त जनकजनपद-आकारक
जनकदशानन-गुनक संग सीता-अवतारक।
लालन पालन संग चरित शैशव-कौमारक
शुभविवाह ओ अवध-गमन तहिठाँ-आचारक॥
61.
रामसंग वनगमन कथा केवट-समाजसौं
पार उतरि गंगाक भेंट मुनि भरद्वाजसौं।
चित्रकूट-गिरि-गमन जतै नहि लेश कलेसक
अनसूयासौं मिलन, श्रवण पुनि शुभ उपदेशक॥
62.
दण्डकवनप्रति गमन जानकी-हरन-कथा पुनि
मारीचक वध बहुरि दाशरथिविरहव्यथा पुनि।
गृध्रराजसौं भेंट कबन्धक कथित कहानी।
मैत्री कपिपतिसंग ततय निश्चित कय वानी॥
63.
मारुतिलंकागमन-कथन, सीतासौं दर्शन
कपिकृत लंकादहन तथा निसिचरकुल-घर्षन।
घुरि मारुति-आगमन-गमन-लंका पुनि रामक
वर्णन पुनि संक्षिप्त राम-रावण-संग्रामक॥
64.
रावणवध उपरान्त राज्यअभिषिक्त विभीषन
सीतारामक मिलन कथा अति सुखद, तहीखन।
सभक अवध-आगमन, भरत केकइमुखरानी-
सहित समाजक मिलन जन्य अछि पुण्य कहानी॥
अम्बचरितमें जननि ओ जन्मभूमि-गुनगान।
विषयकथन संक्षिप्त ई, प्रथमसर्ग अवसान॥