गंगा के तट पर जब उस निशि
चन्द्र किरण मुसकाती थी,
प्रथम मिलन की मधुमय बेला
रस की धार बहाती थी।
जीवन भर का क्लेश मिट गया
देखा जभी रूप अपरूप;
प्रेम-पाश में बँधे जब कि हम
मदमाती अधराती थी।
सारा जग सुधिहीन पड़ा था,
दोनों हमीं रहे थे जाग!
विस्मृति की मादक घड़ियों में
सुलग उठी जीवन की आग।
प्रेम-अश्रुकण गिरकर कितने
सैकत पर प्रियमाण हुए!
वही हमारा आत्म-समर्पण
बना करुण गीतों का राग।
-नवम्बर, 1932