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प्रधूपिता से / महेन्द्र भटनागर

ओ विपथगे !
जग-तिरस्कृत,

माँग को
सिन्दूर से भर दूँ !

सहचरी ओ !
मूक रोदन की —
कंठ को
नाना नये स्वर दूँ !

ओ धनी !
अभिशप्त जीवन की —

तुझे उल्लास का वर दूँ !

ओ नमित निर्वासिता !


नील कमलों से
घिरा घर दूँ !

वंचिता ओ !
उपहसित नारी —
अरे आ
रुक्ष केशों पर
विकंपित
स्नेह-पूरित
उँगलियाँ धर दूँ !