गहन तिमिर से पूर्ण निशा के श्यामल कुन्तल,
फैले गगनमेखला के ऊपर हैं निर्मल।
उद्घोषित हो उठता है जब-तब रह-रह कर,
अरुणशिखा के कल निनाद से स्तब्ध दिगन्तर।
जो अंगारे के समान है दीप्तिप्रसारक,
जिसका विश्वविदित विख्यात नाम अंगारक।
वह प्रवाल-सा चिर जाज्वल्यमान ग्रह मंगल,
मीन राशि में चमक रहा नभ-पथ में उज्ज्वल,
दीर्घ वृत्त में नीलकान्त शन्न अक्षभ्रमण कर,
बना रहा समकोण वलयदर्पण के ऊपर।
ताम्रारुण वह केतु भव्यता का परिचायक,
विहँस रहा है राहु शून्य मण्डल में व्यापक।
विचरण करते जहाँ नील अम्बर-तोरण पर,
ग्रह-विहंग, ज्योतिर्गण वृत्तकेन्द्र के भीतर।
जड़े हुए जैसे सुरम्य अति कान्त मनोरम,
अगणित रंगभरे हीरे, पन्ने मणि, नीलम।
वहाँ सौरमण्डल में भास्वर, चिरं प्रकाशमत,
ओ चमकीले शुक्र, रश्मि के पु´्ज, कान्तिमत।
नित्य पुनर्नव हो उठते तुम रजतचक्र सम,
सदा दमकते जनगण के मन हर सुवर्ण-सम।
प्रकृतिसिद्ध सम्पर्क प्राप्त कर तुम अनन्त से,
उत्फुल्लित हो रहे रागरंजित वसन्त-से।
महाकाल की निद्रा के हे प्रथम जागरण,
गहन गगन-नन्दनवन के सौन्दर्य विलक्षणं
जगा दिया तुमने लहरों से कर आन्दोलित,
निद्रित तरुणपर्णों को केशदाम-से कंुचित।
सावधान कर दिया भैरवी में गाने को,
विगह-वृन्द को अणु-अणु में मधु बरसाने को।
तिमिर मृत्यु के अटल अंक में है अन्तर्हित,
और अमृत का तत्त्व ज्योति में है परिवर्द्धित।
नहीं तुम्हारे जीवन का है पक्ष निबिड़ तम,
ज्योति तुम्हारे जीवन का है सर्वोत्तम क्रम।
तप कर जैसे दीप्तिमान पावक में निर्मल,
हो जाते हैं दग्ध धातुओं के कुत्सित मल।
वैसे ही तव मन-अम्बर के कलुष अमंगल,
भस्म हो गए अमृतरूप वैश्वानर से जल।
अमृतज्योति के प्राणतत्व से ऊर्जित होकर,
विजय प्राप्त की तुमने मृत्यु-तिमिर के ऊपर।
इसीलिए तो दिव्य तुम्हारा है अन्तर्मन,
अनघ, अकल्मष, विशद, शुभ्र, सुन्दरतम, पावन।
भूतसृष्टि के अन्तरतम में सरल, मृदुलतम,
घुसा हुआ है मलिन अनृत का भाव क्षुद्रतम।
भुवनकोश को भरो ज्योति से, भेद तिमिर घन,
बरसाकर निज रंगविम्ब से संजीवन-कण।
(‘नया समाज’, अक्तूबर, 1956)