जब सुधा सरिस थी बीत चुकी, मनहर पूनम की शरद रात।
था चला आ रहा प्राची के पथ से प्रफुल्ल स्वर्णिम प्रभात।।
तब देख प्रात शशि को पूछा, कवि ने संयुत आश्चर्य भाव।
हे देव, खड़े अब मौन यहाँ, क्या सोच रहे मन में सचाव।।
सुन, कहा शान्त सस्मित मुख से, शशि ने होकर पुलकित महान।
है ज्ञात मुझे रवि के समक्ष मेरा न रहेगा तनिक मान।।
पर खेद नहीं कर्त्तव्य पूर्णता का मुझको है सुख अपार।
अब खड़ा अस्त सागर तट पर, करता हूँ केवल यह विचार।।
जाते-जाते भगवान भानु के दर्शन कर फिर एक बार।
श्रद्धा समेत करता जाऊँ, चरणों में नत हो नमस्कार।।