(राग काफी-ताल कहरवा)
प्रभुका लीला-मञ्च बने मेरा यह जीवन।
खेलें इसमें खुलकर वे मेरे जीवन-धन॥
चलें-फिरें, नाचें-कूदें, बैठें या सोयें।
रस बिखेरकर रसिक रुलायें या खुद रोयें॥
समता, त्याग, विराग, प्रेम-रसका आस्वादन।
करे दिव्य अविराम देखकर लीला जन-जन॥