प्रभुकी महत्ता और दयालुता-2
( छंद 128, 129)
(128)
काढ़ि कृपान ,कृपा न कहूँ , पितु काल कराल बिलोकि न भागे।
‘राम कहाँ?’ ‘सब ठाऊँ हैं’, ‘खेभमें?’ ‘हाँ’ सुनि हाँक नृकेहरि जागे।
बैरि बिदारि भए बिकराल, कहें प्रहलादहिकें अनुरागें।
प्रीति -प्रतीति बड़ी तुलसी, तबतें सब पाहन पूजन लागे।
(129)
अंतरजामिहुतें बड़े बाहेरजामि हैं राम, जे नाम लियेतें।
धावत धेनु पेन्हाइ लवाई ज्यों बालक-बोलनि कान कियेतें। ं
आपनि बूझि कहै तुलसी, कहिबेकी न बाबरि बात बियेतें।
पैज परें प्रहलादहुको प्रगटे प्रभु पाहनतें, न हियेतें।।