चित्रकूट वर्णन,
( छंद 141 से 143 तक) 1
(141)
जहाँ बनु पावनो सुहावने बिहंग-मृग,
देखि अति लागत अनंदु खेत-खूँट-सो।
सीता-राम -लखन -निवासु, बासु मुनिनको,
सिद्ध-साधु-साधक सबै बिबेक-बूट-सो।
झरना झरत झारि सीतल पुनीत बारि,
मंदाकिनि मंजुल महेसजटाजूट-सो।
तुलसी जौं रामसों सनेहु साँचो चाहिये तौ,
सेइये सनेहसों बिचित्र चित्रकूट सो।।
(142)
मोह -बन -कलिमल-पल-पीन जानि जिय,
साधु-गाइ-बिप्रनके भय को नेवारिहै।।
दीन्हीं है रजाइ राम, पाइ सो सहाइ लाल,
लखन समत्थ बीर हेरि-हेरि मारिहै, ।।
मंदाकिनी मंजुल कमान असि, बान जहाँ ,
बारि-धार धीर धरि सुकर सुधारिहैं।
चित्रकूट अचल अहेरि बैठ्यो घात मानो,
पातकके ब्रात घोर सावज सँघारिहै।।
(143)
लागि दवारि पहार ठही, लहकी कपि लंक जथा खरखौकी।
चारू चुआ चहुँ ओर चलैं, लपटैं-झपटैं सो तमीचर तौंकी।।
क्यों कहि जात महासुषमा, उपमा तकि ताकत है कबि कौं की।
मानो लसी तुलसी हनुमान हिएँ जगजीति जरायकी चौकी।।