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प्रभु वन्दना / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

करुणामय, इस याचक जग का एक मात्र जो दानी।
जिसकी महिमा के गायन में कुण्ठित होती बानी॥
पग धोने जिसके सरिताएँ समुद सिन्धु में जातीं।
जिसकी पावन सुरभि वायु है दिशि-दिशि में फेलाती॥
ऊषा स्वागत करती जिसका ले किरणों की माला।
जिसे विदा देती सजधज कर प्रतिदिन संध्या बाला॥
सुबह-शाम जिसके यश गाती बन-बिहगों की टोली।
तृषित पपीहा जिसे बुलाता बोल विरह की बोली॥
रजनी दीप जला तारों के करती जिसकी पूजा।
जिसकी समता करने वाला कोई और न दूजा
जिसके नियमों का बन्धन है कभी न होता ढीला।
करता जो भ्र-भंग मात्र से सृजन-प्रलय की लीला॥
जिसे देख प्रमुदित मानस में अमली चेतना-हंसी।
बजती सदा अनाहत स्वर में, जिस मोहन की वंशी॥
दया-दृष्टि जिसकी बरसाती संजीवन की धारा।
विनिमज्जित होकर जिसमें है सुख पाता जग सारा॥
शोकदशा अवलोक लोक यह आकुल जिसे पुकारे।
जिसके गुण-गौरव गाने में शेष शारदा हारे॥
जगदीश्वर जो, दयासिन्धु जो सबका एक सहारा।
है प्रणाम उस दिनबन्धु को बारम्बार हमारा॥