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प्रवासी प्रिय / अनामिका अनु

दूरी के पलों और मीलों को लपेट कर ऊन का पोला बनाया है
सोचती हूँ इसे धीरे-धीरे खोलकर तुम्हारे नाप का स्वेटर बना लूँ
सुना है
तुम्हारे देश में ठंड बहुत है

मीलों दूर हैं हम एक दूसरे से
कई नदियाँ, पर्वत, पठार और शायद
एक समुद्र भी है हम दोनों के बीच
एक पतली रेशम की डोर जोड़ती है हमें
जरा सा खींचते ही वह डोर भी टूट जानी है

प्रवासी प्रेमिकाओं की दोनों आँखे
चिड़ियाँ हो जाना चाहती है
सर्द मन में यादों के फाहे गिरते ही
वह उड़ जाना चाहती हैं
प्रिय के देश
और देखना चाहती है
प्रिय के देह के भीतर जलते अलाव को

प्रवासी प्रेमी की बाहें हवाईजहाज़ के पंख बन घंटों में नाप लेना चाहती हैं
मीलों की दूरी
वह धीरे से उतरना चाहता है
उसके नीपे पोछे मन के आँगन में खड़े
नींबू के पेड़ के पास
जहाँ गहरे हरे अंधेरे के बीच
पीले बल्ब से नींबू चमक रहे हैं
और चूमना चाहता है
उसकी लिखती उंगलियों को
जो अब भी गर्म है कलम की छुअन से

अदृश्यता की पीड़ा गंभीर
तीर की नोंक-सी भेदक
विडियो काॅल बस एक यांत्रिक मिलन मात्र है
मानो भूतहे पोखर की सतह पर तैर रहा हो प्रिय का चेहरा
तृप्ति से मीलों दूर बेचैनी के गाँव में

पका विरह
गुलाब ख़ास के पके आम सा
आजकल में टपकेगा
फूल से कच्ची केरी
फिर शनै:-शनै: पकना उसका
कितना सुख देता था
विरह प्रेम के पेड़ से टपका सुख है

प्रवासी प्रिया को याद करता प्रेमी
राग मल्लहार हो जाता है
प्रवासी प्रेमी को याद करती प्रिया
वीणा के तार