जाड़े की धूप वहाँ गोरी छरहरी होगी,
बादल यहाँ उमड़े असमय भीमकाय!
मेरे आँगन महमह करती होगी रजनीगन्धा, शेफाली!
यहाँ गमलियाँ सजीं, निर्गन्ध पुष्पोंवाली।
सब अपने-आपने में चलते सिर के बल!
मेरा तन थिर, मन विह्वल, चंचल!
धन-गर्जन-तर्जन! खनक सुनता चूड़ी की!
बुंदियाँ जैसे मोती गुँथे हैं नथ में दूरी की।
कौंध गयी छवि-प्रिया वातायन से मेरे
बिजुरी की अंजुरी में हिया दबा जाय।
भींगू मैं किसके बल, थरथराये गात!
बहुत कठिन सहना दिन यों बनकर रात!
सर्द आह ढूँढ रही उसका दुशाला यों,
चलो मन, लिखे दिन-दहाड़े दीपक जलाये।
(23.10.1978)