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प्रवास से / समीर बरन नन्दी

सिरहाने जल, दवाई बगल
छाती पर उल्टी धरी जीवनानन्द दास की 'रूपसी-बांग्ला' ।
दीवार पर मकड़ियो के जाले में अटकी शाम ।
झरे पत्तों के ढेर पर
डूबते सूर्य का सुनहला पथ ।

रात, भोर, भरी दुपहरिया
एक डाली करती है हवा
बार-बार आगे बढ़ कर --
सिरहाने फेरती है हाथ --
चिंता न करो ...चिंता न करो ।
मैं तो हूँ....

प्रलाप करता हूँ उससे
दीदी ! घर जाऊँगा मैं ।