आज मैं प्रश्नाकुल हूँ।
मुझमंे भिदे जो तत्त्व हैं-विराट् और उदात्त-
जीवन के प्रेरक, पोषक, प्राण-सहजात:
रसवती पृथ्वी, मधुर जल, निर्मल वातास,
तेजोमयी अग्नि, आनन्दमय आकाश-
क्या वे सब मेरी काया में
स्वेच्छा से कर रहे हैं विहार-
जैसे, शिराओं में होता है स्वस्थ अरुण रक्त का संचार?
या, मैंने आततायी बनकर उन्हें, अपने में
बाँध कर पटक रखा है, बंदी बना-वेगार में?
या, किसी ने वे मुझमें लाकर ठूँस दिये हैं-
बलात्-अतिचार में?
क्या दूसरों का भोग्य (अन्य काया में सदुपयोग होता!) हड़प रखा है-
अनधिकृत? स्वेच्छाचार में?
मैं तो यही चाहता हूँ मेरे कर्तार!
कि मुझमें उच्छल जीवन-ज्योति-तरंग
छहराने के लिए ही उनका प्रवेश रहे,
उनका मुझमें स्वैच्छिक परम चैतन्यमय संश्लेष रहे!
यदि मेरी जीवन-गति के प्रति है तुम्हारा पूर्ण विश्वास
यदि केवल तुम्हारी ओर ही है मेरे डाल-पाल का विकास
तो तुम्हारा अनुग्रह मुझे स्वीकार-
अन्यथा, मेरी मिट्टी को धिक्कार!
तुम्हारे हाथ की डोरी और मेरा चाक-
बस, लौटूँ मैं-अपने दाता का ऋण करके बेबाक!
कोई भी अपवाद, पक्षपात, व्यर्थ एहसान का न हो प्रयत्न-
क्योंकि यह मेरी अस्मिता, मेरे अस्तित्व
और मेरे आत्म स्वातन्त्र्यजीवी होने के
मानवीय गौरव का है प्रश्न!
1987