प्रश्न करो, उस हर उत्तर से
जो प्रश्नों को चुप करवाये
जो काग़ज़ की नाव चलाये
दाग लगाये, जाल बिछाए
घुल-मिलकर दंगे करवाये
जो सूरज पर कालिख पोते
तर्कों को सुनकर बस रो दे।
प्रश्न करो हर प्यासे मन से
उसके क्या हैं राज़ पुराने
क्यों वह बस प्यासा रहता है
दस हाथों से क्यों दुनिया को
पाने की आशा रखता है
क्यों उसके हैं खेल निराले
क्यों बुनता है ताने बाने
मिला नहीं जो उसको सोना
मिल जाये तो पत्थर माने।
प्रश्न करो हँसते चेहरों से
क्या मज़बूरी है हसने की
क्या हो जाएगा हँसने से?
दुनिया की नज़रों से बचके
मन रोता है मुख हँसता है
अर्धज्ञान वाला अभिमन्यु
अपने लिए व्यूह रचता है?
इन नासाज़ हरकतों से बस
दुनिया उलझाऊ होती है
इन सारी करतूतों से बस
मानवता काँटा बोती है।
प्रश्न करो दुनिया वालों से
क्यों इतने अशांत रहते है
क्या गणना करते रहते हैं
ऐसे क्यों वितान रचते हैं
सब अच्छा कहना पड़ता है
माया-छल रचना पड़ता है
दिल रोता है मन रोटा है
चेहरे को हँसना पड़ता है
प्रश्न करो अपनी नीयत से
ऐसी क्या है क़यामत आयी
क्यों चालाकी हर पल छाई
क्यों गुणा गणित में लगता मन
सादगी-सत्य से डरता मन
क्यों अंधियारी रातों में उसके
नख आयुध है उगआते
क्यों भरी दोपहरी में उसको
उजियारे हैं कम पड़ जाते।
सच ये है कि कोई प्रश्न नहीं
ये मानवता का रोदन है
उत्तर तो धरता सहज मौन
हर इक नीयत का शोधन है।
दुनिया है तो दुख है सुख है
दुनिया है तो सब पाप पुण्य
दुनिया है तो है लाख प्रश्न
वरना सबकुछ है महाशून्य।