वही मुसकान,
जो बचपन की भोर में खिली
अनजान, सपनीली कली-सी, होठों पर,
-हजारों बार यों ही आ गई, बिलमी,
सकुचकर चल पड़ी
भटके हुए मेहमान-सी;
पर वह नया आरम्भ बन जाती बराबर
कौन-सी इति के लिए ?
वही सपने छली,
जो नौ बजे दिन में चपल कैशोर के,
मुक्त नयनों में उठे
बन कल्पना के ज्वार
और यौवन को डुबोकर
लाखरंगी फेन में, छहर लौटे,
-दोपहर तक खो गए !
स्वप्न दिन के घिर पड़े
बन मौन मृग-जल,
उम्र सैकत में तड़पती ही गुज़रती है
न जाने किन बदलियों के लिए ?
पिपासा भी वही,
जो डाह की अनुभूति पीती रही,
अन्तर्हवन की ज्वाल-सी जलती रही,
जो साध की आहुति बना संभावना को,
विफलता की छाँह में पलती रही !
अब ढल रही दोपहर,
प्यास की लपटें धुएँ से हो रहीं कातर,
-बदलती जा रही है रंग;
क्या सलोनी साँझ तक
होकर धुईंली और काली
बन चलेंगी वे तिमिर की चित्र-लपटें ?
बुझ न पायेगा कभी वह
अनुस्यूत प्रदाह !
प्यास, -चुपके पी गई जो कभी
शबनम का समंदर,
सोख ली जिसने
अनाविल अश्रु की गंगा,
वही मन्दाकिनी को भी बनाकर भाप,
शायद निगल जाएगी !
यह अघाती ही नहीं
किस विरल निर्झर के लिए ?
वही मुसकान : भटका अतिथि,
वे सपने छली : अभिशाप,
इति क्या ? ...बदलियाँ वे कौन ? –कैसा विरल निर्झर ?
प्रश्न का होता नहीं उत्तर,
हमारे अनुभवों में कभी मिट जाता विवर्त्त-विधान,
सारे प्रश्न हो जाते तिरोहित,
उत्तरित – सबके लिए !