रजत विराजित विलोक तरु-राजि-दल,
मोहकता अवलोक अवनी अपंक की;
भाए विभा-वलित दिगंगना विशद भाल,
छाए छवि-पुंजता रुचिर छवि रंक की।
'हरिऔधा' राका-रजनी-सी रंगिणी के मिले,
छीर-निधि की-सी छटा देखे सरि अंक की;
चाँदनी-समान चारु हासिनी विकास व्याज
बिहँस रही है आज मंजुता मयंक की।
नाना स्वाद-सदन मनोहर सिता-समान
वसुधा विनोदन सुधा-निधि में धाँसे हैं;
दाख-से सरस मधु-मंजु कंज-कमनीय,
माधुरी की मधुर कसौटी पर कसे हैं।
'हरिऔधा' लालायित होता है विलोक लोक,
लोच भरे लालची विलोचन में बसे हैं;
आहा! कैसे तरु में फबीले सौरभीले भले
पीले-पीले परम रसीले आम लसे हैं।
नीलम के हार-से लसे हैं हरे पल्लवों में,
पादप की मोद-भरी मंजुता के थल हैं;
बानर के व्यंजन, विहंगम के मेवे मंजु,
केकी के कलोल, काक-कुल के कवल हैं।
'हरिऔधा' मेदिनी विकास के सलोने लाल,
डाल के हैं माल, बाल-मंडली के बल हैं;
मतवाले भृंग-से निराले घन लाले पाले,
काले-काले छविवाले जामुन के फल हैं।
सरस बनाती है विलोचन प्रभात काल
लिये ओस-बिंदुओं की छोटी-छोटी कलसी;
करती है पुलक वलित केलि कामुक को,
बन-बन किरण कला की कांत कलसी।
'हरिऔधा' पाई अभिरामता धारा में रम,
नेह-पगे गयी गात श्यामता में ढल-सी;
नीले-नीले फूलों में बसी है क्या निराली छटा,
हरे-हरे-दल में लसी है कैसी अलसी।
ऊषा-सुंदरी क्यों राग-रंजित द्विगुण हुई?
लालिमा चढ़ी है क्यों दिगंगना-दुकूलों पर?
रोली-भरा थाल कौन लाल लौट गया आज,
परम ललाम भूत लोक-छवि-मूलों पर।
'हरिऔधा' कौन-सा सरस उर होली खेल
बरस रहा है रंग निज अनुकूलों पर;
किसके अबीर फेंके महुए हुए हैं लाल,
किसने गुलाल डाला सेमल के फूलों पर?
मुँह खोल-खोल जब बान हँसने की पड़ी,
तब हँस-हँस क्यों न सबको हँसाएँगे?
महँ-महँ महँक रहे हैं जो महँक भरे,
कैसे तो न महती मही को मँहकाएँगे।
'हरिऔधा' पाई है बहार तब कैसे नहीं,
हार किसी महिमामयी को पहिनाएँगे;
रंगवाले मिले आज दुगुने रँगीले बने,
कैसे फूल रंग ला न रंग दिखलाएँगे।
लाली मिले किसकी कलित किसलय हुए,
पत्ते महुए के हो गये हैं क्यों ललिततर;
रँग गया रोचन से रुचिर फलों के साथ
वट के नवलदल कौन कमनीय कर।
'हरिऔधा' कोई क्यों नहीं है बतलाता हमें,
सारे कचनार क्यों अबीर से गये हैं भर;
रंग खेल किससे पलास हो गये हैं लाल,
किसने गुलाल फेंका ऊषा के कपोल पर।