यह लम्बी कविता पुरातत्ववेत्ता अचानक नहीं लिखी गई। विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन से ‘प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व’ में स्नातकोत्तर की पढाई के दौरान चम्बल नदी के किनारे दंगवाड़ा नामक स्थान पर सुविख्यात पुरातत्ववेत्ता डॉ .वि.श्री.वाकणकर के साथ उत्खनन करते हुए इस प्रश्न ने जन्म लिया कि आम लोग एक पुरातत्ववेत्ता के कार्य के विषय में क्या जानते हैं? डॉ. वाकणकर के सामने मैंने अपनी यह जिज्ञासा रखी तो उन्होंने एक किस्सा सुनाया जिसमे किसी उत्खनन के दौरान खुदाई समाप्त होने के बाद रोज शाम एक गडरिया बालक उत्खनन स्थल पर आता था और उनसे पूछता था ..” कईं बासाब सोणा मिल्यो ? “ उस बालक के इस बालसुलभ प्रश्न में उत्खनन सम्बन्धी जनधारणा छुपी हुई थी।
कमोबेश यही स्थितियां आज भी हैं। पुरातत्ववेत्ता के विषय में लोग इतना भी नहीं जानते यदि बाबरी विध्वंस के पश्चात पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों को अपने अपने खेमे में शामिल करने का खेल न शुरू हुआ होता l डॉ वाकणकर संघ के कट्टर समर्थक थे लेकिन उनके भीतर का पुरातत्ववेत्ता उनकी विचारधारा से हमेशा एक द्वंद्व की स्थिति में होता था। वहीं मार्क्सवादी चिन्तक डॉ.भगवत शरण उपाध्याय के अल्पकालीन सान्निध्य में मार्क्सवादी इतिहासकारों को पढ़ते हुए अपनी समझ और जिज्ञासाओं के साथ मैं और मेरे मित्र रवीन्द्र भारद्वाज और अशोक त्रिवेदी उनसे बहस किया करते थे l सन्दर्भों ,मान्यताओं और स्थापनाओं को लेकर उपजे द्वंद्व के बीच इस कविता का बीज तैयार हुआ।
मनुष्य जीवन में इतिहास की उपयोगिता और मनुष्य के इतिहास बोध से जुड़े अनेक प्रश्नों का उत्तर समय समय पर इतिहासकारों और विद्वानों द्वारा दिया गया है। प्रारंभिक इतिहासकारों हेरोडोटस, थूसिदीदस, इब्त खलदून, मैकियावेली, देकार्त, जे.बी.बरी से लेकर जी एम् ट्रेवेल्यान, ई.एच.कार, वासुदेव शरण अग्रवाल, आर.एस.शर्मा, इरफ़ान हबीब, रोमिला थापर, जैसे पेशेवर गैरपेशेवर इतिहासकारों और विद्वानों ने देशकालानुसार अपने मंतव्य प्रकट किये हैं। देवीप्रसाद चट्टोपाध्याय, डी.डी.कोसंबी, राहुल सांकृतायन, भगवत शरण उपाध्याय, रामविलास शर्मा से लेकर भगवान सिंह,डॉ.लाल बहादुर वर्मा और ऐसे अनेक विद्वान मनुष्य के लिए इतिहास का अध्ययन आवश्यक मानते हैं। जनमानस की इतिहास दृष्टि के विकास में इन समस्त महानुभावों की भूमिका उल्लेखनीय है।
विडम्बना यह है कि इतिहास के तथ्यों और समझ को लेकर निरंतर खिलवाड़ जारी है। काल्पनिक साक्ष्यों के बरअक्स पुरातात्विक साक्ष्यों को महत्वहीन समझा जा रहा है। राहुल सांकृतायन ने वर्षों पहले पुरातत्व सम्बन्धी अपने लेखों के संग्रह ‘पुरातत्व निबंधावली’ में पुरातत्व को इतिहास के सर्वाधिक विश्वसनीय स्त्रोत के रूप में स्थापित किया था लेकिन पूर्वाग्रहों के चलते पुरातत्व के महत्त्व को आज भी इस रूप में स्वीकार नहीं किया गया है। पुरातत्ववेत्ताओं का श्रम जब प्रिंट फॉर्म में आता है तो बहुत कुछ अनदेखा रह जाता है। वे अपने श्रम की परिणति स्वयं नहीं जानते यद्यपि वे अपना कार्य एक वैज्ञानिक की तरह ही करते हैं लेकिन उसके परिणाम देखने वाले मनुष्य की दृष्टि वैज्ञानिक हो यह ज़रुरी नहीं होता। आम आदमी पौराणिक कथाओं, गाथाओं, धर्मग्रंथों के आख्यान, किंवदंतियों, किस्सों और कहानियों में फर्क करने की ज़द्दोज़हद नहीं करता। वह मनुष्य की जैविक अवस्थाओं के साथ साथ ईश्वर, धर्म, परम्परा, मिथकों, अविष्कारों आदि को उनके कालक्रमानुसार रखने में अनायास और कभी कभी सायास गड़बड़ियाँ करता है।
इधर उत्तर आधुनिकता पर छिड़ी बहस में इतिहास विरोधी शक्तियां पुनः सक्रिय हो चली हैं। डॉ अजय तिवारी इसे बाज़ार व्यवस्था का परिणाम बताते हैं। उनके अनुसार इतिहास विरोध का परिणाम है मिथक का पुनर्जीवन और धर्मवाद की शरण। वे कहते हैं ..“ उत्तर आधुनिकता ने इतिहास की जिस उपेक्षित ( सबाल्टर्न ) धारा को जन्म दिया उसने इतिहास और मिथक के एकीकरण के सभी कीर्तिमान तोड़ दिए। दस्तावेजी इतिहास को अवास्तविक मानकर उसने लोकप्रिय इतिहास लेखन का सिलसिला शुरू किया जिसमें हर लोकप्रिय विचार प्रामाणिक बन गया । लोगों की धारणाओं और कल्पनाओं में दमित सत्य इस तरह उभारा गया कि महावृतांत ध्वस्त हो गए। राष्ट्र और जाति की वास्तविक सत्ताएँ लुप्त हो गईं। बच गया केवल वर्तमान और इस वर्तमान पर बहुराष्ट्रीय छायाएं गहरी हैं l ( तद्भव अगस्त 2004)
आमजनों की इतिहास दृष्टि के सम्बन्ध में आस्था और विचारधारा का प्रश्न भी महत्वपूर्ण है। प्रोफ़ेसर रामशरण शर्मा कहते हैं कि “ लोग देवताओं को आस्था और विश्वास के कारण पूजते हैं न कि पुरातात्विक खोजों के कारण। आखिर क्यों दुर्गा, गणेश, शिव और विष्णु पूरे देश में पूजे जाते हैं जबकि इनके साथ कोई ऐतिहासिक सन्दर्भ नहीं जुड़ा हुआ है। आस्थाएं विकसित करना ज़रूरी हो सकता है लेकिन देवत्व की पूजा के लिए इतिहास को भ्रष्ट करना कतई ज़रूरी नहीं है ( समकालीन जनमत अप्रेल 2002)।
पुरातत्ववेत्ताओं के लिए आस्था का प्रश्न किसी धर्मविशेष के साथ नहीं जुड़ा होता। अपनी व्यक्तिगत आस्था से ऊपर उठकर वे भले ही इतिहास को वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें और साम्प्रदायिकता, धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्म सद्भाव जैसी अवधारणाओं से परे हों लेकिन आम आदमी वैज्ञानिक दृष्टि में विश्वास रखने और व्यवहार में भौतिकवादी होने के बावजूद विश्वदृष्टि के स्तर पर हमेशा एक द्वंद्व से घिरा होता है। वरना क्या कारण है कि भौतिकशास्त्र का एक प्रोफ़ेसर जो न्यूटन के इस नियम में विश्वास रखता है कि कोई भी स्थिर वस्तु बिना किसी बाह्य बल के गतिशील नहीं होती, इस बात में भी विश्वास करता है कि सत्यनारायण की कथा में मात्र प्रसाद ग्रहण कर लेने से डूबी हुई नाव ऊपर आ जाती है। इसी तरह सम्पूर्ण जैविक संरचना, शरीर विज्ञान व औषधि विज्ञान का ज्ञाता एक चिकित्सक अंत में सब कुछ ईश्वर के हाथ में छोड़ देता है। धर्म और विज्ञान के इस घालमेल से उपजी यह दोहरी मानसिकता ही मनुष्य की कमज़ोरी है और यह उसके मस्तिष्क में उसके बचपन के संस्कारों और सामाजिक प्रभाव की वज़ह से है। सत्ताएं मनुष्य की इसी कमज़ोरी का लाभ उठाती हैं यद्यपि इनके सर्वोच्च शिखर पर बैठे मनुष्य भी दृष्टि और इतिहासबोध को लेकर आम मनुष्य से भिन्न नहीं होते।
पुरातत्ववेत्ता भी मनुष्य हैं और वे उस मनुष्य का इतिहास खोज कर निकालते हैं जिसमें वे ख़ुद शामिल हैं। अतः निरपेक्ष होकर कार्य करना सर्वोपरि है और जगत के सामान्य व्यवहार से संचालित होते हुए भी इतिहास के प्रति सही दृष्टिकोण रखना ज़रूरी है। इस कविता को लिखने का मेरा उद्देश्य सिर्फ उनके कार्य या ज्ञान का बखान नहीं है न ही उनके धैर्य साहस व क्षमता का गुणगान। यह उनके प्रति अंध आस्था की कविता भी नहीं है क्योंकि आस्था उनके लिए भी मील का अंतिम पत्थर नहीं है।
मनुष्य के रूप में स्वयं के इतिहास की खोज यद्यपि पुरातत्ववेत्ताओं के लिए कठिन कार्य है लेकिन महत्वपूर्ण इस अर्थ में है कि मनुष्यता का भविष्य इसी से तय होना है और इस कार्य में सजगता, ईमानदारी, नैतिकता और विचारधारा ज़रूरी है इसलिए कि छोटी से छोटी वस्तु भी इतिहास की धारा बदलने का सामर्थ्य रखती है जैसे कि उत्खनन में मिले चूल्हे और यज्ञवेदी में मात्र एक ईट की दीवार का अंतर होता है और इतनी सी बात आर्यों के मूल निवासी या बाहरी होने की बहस से सम्बन्ध रखती है।
कविता की भूमिका लिखने के लिए मैं कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूँ वरिष्ठ कवि लीलाधर मंडलोई के प्रति जो कॉलेज में मेरे सीनियर भी रहे हैं और अपने साहित्यिक बचपन से जिनका मार्गदर्शन मुझे मिलता रहा। अंत में उन सभी इतिहासकारों एवं लेखकों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन के साथ जिनके लेखन और विचारों से मुझे प्रत्यक्ष परोक्ष मदद प्राप्त हुई , कृतज्ञ हूँ उज्जैन के पुरातत्ववेत्ता डॉ. निगम, डॉ. रवींद्र भारद्वाज का, नरेश चंद्रकर और नासिर अहमद सिकंदर जैसे कवि मित्रों का व आलोचक मित्र डॉ जयप्रकाश ,डॉ.सियाराम शर्मा का, भाषा एवं शिल्प के निखारने में मुझे जिनका सहयोग मिला और निस्संदेह ‘पहल’ के संपादक और इस कविता के प्रकाशक वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन जी का जिन्होंने मुझे हमेशा बेहतर रचने के लिए प्रेरित किया।
--शरद कोकास