ऎसा कभी मुमकिन नहीं होता
कि जहाँ
ख़ूनी कार्रवाई का मामला हो
वहाँ
प्राक्सी से काम चला लिया जाए।
क्रांति
किसी नाटक की रिहर्सल नहीं होती। वह
बस, क्रांति होती है। और
कुछ नहीं।
उसमें
न तो हरी कोंपलों को बख़्शा जाता है
और न झूमती टहनियों को। सबको
अपने-अपने हिस्से की मौत
झेलनी होती है। सबकी ज़िन्दगी के लिए।
अपना-अपना रोल निभाते हुए।
(रचनाकाल : 26.06.1974)