Last modified on 19 जुलाई 2016, at 09:38

प्राणमती शोभा / प्रेम प्रगास / धरनीदास



विनु अमरन धनि देखैऊं, अंगहि अंग निहारि।
लासा लागु सकल तनु देखि रूप वरनारि।।20।।

चौपाई:-

बदन सुवूनो पूरन चंदा। तेंहि में अतिशत करहि अनंदा।।
विम्वा खंजन करिसों ठाना। एक धनुष जोरे दुई वाना।।
श्रवण स्वरूप कवन कहियारे। यहहि परे जब लहहि निहारे।।
वत्तिस गजमुक्ता अति सोहै। जाकै दमकि दामिनी मोहै।
रसना सुरस सुधारस चाहीं। मुख भीतर धरि राख्यो ताहीं।।

विश्राम:-

रसन गुन को कहे, स्रवतसुधारस जाहिं।
रूपवाण लगे मरै, बोलि जियावहि ताहि।।21।।

चौपाई:-

कोमल लोल कपोलन छाजहिं। दाडिम वीजत पांति विराजहिं।
ठोढी अति अपूर्व लगाई। चन्द अभिय जनु रज वटुराई।।
तापर कारो अलक अपारा। अचल अमिप को राखनिहारा।।
मुख शोभा मुख कहिना जाई। कामवाम जेहि देखि लगाई।।
रेखा नील तिलक अस्थाना। सव जग जीतै वांधु जनु वाना।।

विश्राम:-

मुख शोभा कौ कहि सकै, विधि निजकर निर्मान।
निरखि बदन मन आतेऊ। कौ करि सकै बखान।।22।।

चौपाई:-

ग्रीव असीव कहत नहि आवै। जहां चितवे चित रहत लोभावै।।
चित्र विचित्र केश रहु ताही। मौर थौर छवि तुलै न वाही।।
वांह युगल अति वन्धो रसाला। तुलै न कनक दंड न मणाला।।
करतल रूप वरनि नहि जाई अपने कर विधि देख वनाई।।
अंगुरी देखि रहै तन तायू। खंड खंड गति जोरचो आपू।।

विश्राम:-

सकल सृष्टि पर सिरजेऊ, विधना नारि संवारि।
आगे रूप सुनो कछू, धरनी कहै विचारि।।23।।

चौपाई:-

चन्द्रकान्ति पुनि दश नख पाहा। चौथी दृष्टि निरखि द्युति ताहा।।
नखपांती सोहै उजियारा। मानौ उदित भये निशितारा।।
गोंदन पांति जोरि वैसाऊ। रतन ताहि उपमा किमि वाऊ।।
देख्यो विम्ब उरोज सुभाऊ। जिन आसन हृदयापर लाऊ।।
ताहि हृदय सकुचत वहराहीं। जो दखै तंह धार समाहीं।।

विश्राम:-

लघु कुच अति आछा वनो, आवत यौवन राव।
जनु शिशुता सुधि पावते, विम्ब प्रधान पठाव।।24।।

चौपाई:-

छाती वनी कनक की वेदी। गुरु अरु शुक्र वैस जनु भेदी।।
तिनके शीश विराजत चूनी। जेहि देखत मोहै मन मूनी।।
पेट रेख निधि कहा बखानी। जाकी दृष्टि परी तिन जानी।।
पीठ अंगोछा संखिन सुधारा। जनु दर्पण मंजन अनुसारा।।
नाभी कुण्ड वित्रि बनाऊ। मदन भूप जनु कूप खनाऊ।।

विश्राम:-

रूप सरूप अनूप छवि, सुनहु कहौं सतिभाव।
पुरुब जनम अति आगर, सोनर दर्शन पाव।।25।।

चौपाई:-

रोमावलि अरु नाभि सोहाई। शेष विवर कहि बाहर आई।।
कटि न जात चित मरमत भूलै। एक नाल विधु पंकज फूले।।
छिनुक एक द्रि कटि छवि पाई। छीनि लई मृगराज बड़ाई।।
सुघर सुरंग निम्ब संवारे। उलटि परे जनु काम-नगारे।।
घेरि घांघरा जंघ न पाई। जा विधि कुंदहि कुंद चढ़ाई।।
पांव पवित्र विचित्र सोहाई। चंद पुरन नख पांति बनाई।।
एड़ी झक अति रूप अपारा। काम काढि जनु ईगुर ढारा।।

विश्राम:-

पावक र्य सराहते, पावक उठत शरीर।
पाव धरों में ताहिके, पगु परसे जो वीर।।26।।