प्राण-वधूटी!
अन्तर की दुर्जयता तुमने लूटी!
गौरव-दृप्त दुराशाएँ, अभिमानिनी हुताशाएँ,
स्वीकृति-भर से ही कर डालीं झूटी!
प्राण-वधूटी!
दानशीलता खो डाली - दम्भ मलिनता धो डाली!
अहंमन्यता की छाया भी छूटी!
प्राण-वधूटी!
दीन-नयन की याञ्चा से- उर की अपलक वाञ्छा से
मंडित मेरी कुटिया टूटी-फूटी!
प्राण-वधूटी!
कम्पन ही से रुका हुआ, जीवन पैरों झुका हुआ-
हाय तुम्हारी मुद्रा अब क्यों रूठी!
प्राण-वधूटी!
अवगुंठन को डालो चीर-प्रकटित कर दो उर की पीर,
लज्जा के बिखरे फूलों पर, आज बहा दो आँसू नीर-
बस भिक्षा दे डालो आज अनूठी!
प्राण-वधूटी!
मुलतान जेल, 2 दिसम्बर, 1933