गगन चूमता गिरि शिखर,प्रात करे शृंगार ।
दिशि प्राची मन मोहिनी,कंचन पहने हार ।
मुदित हुआ जनु बाल रवि,कंदुक रहा उछाल,
गगनाँचल से हो रही, खुशियों की बौछार ।
नीली छतरी के तले, जीवन के हर रूप,
भोग व्याधि संघात से,बचा न कोई द्वार ।
भूख,ग़रीबी यातना, रोटी की अरदास,
पड़े दीन असहाय का,धरा-गगन घर बार ।
खपा चलीं हैं पीढियाँ,अपने पन का मंत्र,
आस भरे आकाश का,दाता पालन हार ।
बरखा सावन फागुनी,शीत साँवरी रात,
शून्य; नहीं ये प्रेम नभ,समझो सब विस्तार।